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________________ में ठोकने। जैसे लोग दीवारों में लोहे की कील ठोकते हैं, ऐसे ही उसने महावीर के कानों में लकडी की सलाई की कील ठोक दी। देवेंद्र यह देखकर व्यथित हो उठा। महावीर पर ऐसा अत्याचार ! उसने महावीर के पास आकर कहा, 'भंते, ये जंगली लोग इस तरह तो आपको असीम कष्ट देते रहेंगे। मुझे आपकी सेवा में रहने का मौका दें, ताकि बाहरी विपदाओं का आपको सामना न करना पड़े।' महावीर ने कहा, 'इन्द्र, तुम्हें इन कानों में ठुकी हुई कीलें तो दिखाई दे रही हैं, लेकिन इन कीलों को ठुकने से मेरी अंतरआत्मा में कितनी जाग पैदा हुई, मैं देह से कितना विदेह हुआ, यह तुम्हें दिखायी नहीं दे रहा। ग्वाला मेरे लिए उपकारी ही रहा। साधक के लिए तो उसे मिलने वाला हर कष्ट उसकी साधना और सहिष्णुता की कसौटी ही है। जिसे साधना का, ध्यान का गुर समझ में आ गया, उसकी मूल बात हाथ में लग गयी, तो वह अपनी देह और मन से वैसे ही अलग रहता है जैसे सर्प अपनी केंचुली से, लौ माटी के दीये से। जो होता है, हम उस होनी में आनंद लें। बगैर किसी हस्तक्षेप के, शांत सजगता से, देखें भर। साधक के पास तो बस स्वयं का अहसास रहे। भीतर कौन है, अंत:करण में क्या है? मैं हूँ ? नहीं! केवल शांत, मौन, शुद्ध आकाश है, अस्तित्व है। ____ आप ध्यान में जीयें, ध्यान को जीयें, ध्यान से जीयें जीवन की आंतरिक चिकित्सा के लिए, अस्तित्व की समग्रता से संबद्ध होने के लिए। ध्यान अनुपम है, अद्वितीय है। ध्यान कीजिएं, पर हाँ, कुछ बातें अवश्य ध्यान में रखें। पहली बात है: चिर प्रसन्न रहें। सदा मस्त रहें। ध्यान को जीने का अर्थ यह नहीं है कि स्वयं को पत्थर की प्रतिमा बना बैठो। ध्यान तो तुम्हें ऐसी प्रतिमा बनाता है जिसमें आनंद की शाश्वत सदाबहार लौ सुलगती है। तुम हर हाल मस्त रहो, जीवन की साधना के लिए इससे बढ़कर और कोई सूत्र, सिद्धांत या मंत्र नहीं है। चिर प्रसन्नता और चिर आनंद वास्तव में नित्य गंगा-स्नान की तरह है। सदा आनंदित रहना जीवन के तीर्थ का सदा हरा ध्यान के गहरे गुर / ३५ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003865
Book TitleDhyan ka Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2011
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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