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________________ होना मेरे हाथ में है ? I मनुष्य का मन कितना विचित्र है, यह स्वयं मनुष्य ही नहीं जानता । मनुष्य का ज्ञान कितना सीमित है । वह अपने मन के बारे में कितना कम जानता है। अगर थोड़ा बहुत जानता भी है तो केवल अपने प्रगट और चेतन मन के बारे में ही जानता है । सच्चाई तो यह है कि मनुष्य का मन जितना प्रगट है, वह तो मन का दस-बीस फीसदी भाग ही है। शेष भाग तो अप्रगट ही बना रहता है । वह तो मौके - बेमौके निमित्त मिलने पर प्रगट होता है या रात को सो जाने पर स्वप्न - चित्र के रूप में प्रतिबिम्बत होता है । यह मनुष्य का अवचेतन मन है । अचेतन मन की स्थिति तो इससे भी और गहरी है । मन की जैसे-जैसे परतें उघड़ती हैं, मन के, अन्तरमन के रहस्य स्पष्ट होते हैं । काम-क्रोध, वैर-विरोध की तरंगें हमारे चेतन मन में भले ही प्रगट होती हों, पर जब तक हम मन की मूल जड़ों तक नहीं पहुँचेंगे ऊपर से आरोपित किये गये नियम - व्रत, सुने गये प्रवचन, बाँचा गया ज्ञान पूरी तरह सार्थक नहीं हो पाएँगे। हमें मूल जड़ों तक पहुँचना होगा । तूल से मूल की ओर जाना होगा । प्रकृति का नियम है कि कड़वे फल की जड़ें कड़वी ही होती हैं । हम किसी बात के बिगड़ने पर न तो अपने क्रोध को दोष दें, न ही उसका प्रायश्चित्त करें। हम उन जड़ों तक पहुँचने की कोशिश करें जो निमित्त मिलते ही क्रोध, विरोध आदि के रूप में प्रगट हो आती हैं। हमें मूल तक पहुँचना होगा, मूल जड़ों को, मूल चूलों को हिलाना होगा, काटना होगा । कषाय के बीजों को काट कर ही व्यक्ति आध्यात्मिक आरोग्य को उपलब्ध होता है । मन के रोग मिटें, मन की खटपट मिटे तो ही ज्ञात हो पाये कि मूलतः हम कौन हैं, कहाँ से आये हैं, कहाँ जाना है ? बाहर का वातावरण कलुषित हो, तो स्वयं को उस वातावरण से अलग किया जा सकता है, पर भीतर का वातावरण कलुषित या अपवित्र हो तो बचकर कहाँ जाओगे ? औरों से तो पलायन किया जा सकेगा, स्वयं से कैसे करोगे ! भागो मत, भगोड़े मत बनो। तुम जहाँ हो अपने में वहीं स्थित हो जाओ । तुम्हारे पास ही तुम्हारे Jain Education International For Personal & Private Use Only ध्यान के गहरे गुर / ३३ www.jainelibrary.org
SR No.003865
Book TitleDhyan ka Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2011
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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