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ध्यान के गहरे गुर
मनुष्य को यह ज्ञात नहीं है कि मूलतः वह कौन है, कहाँ से, किस दिशा-विदिशा से आया है। उसे यहाँ से कहाँ, किस ओर जाना है। उसे अपने मन में बीमारियों का अनुभव होता है। काम, क्रोध, मोह, वैर
और विरोध - ये सब मन के ही रोग हैं। धर्म का विज्ञान मनुष्य को सदा यह प्रेरणा देता है कि वह अपने इन रोगों पर विजय प्राप्त करे। लोग इस हेतु से स्वाध्याय की ओर भी प्रेरित होते हैं और सत्संगों में भी शरीक होते हैं। पर क्या प्रवचनों को सुनने भर से या किताबों को बाँच लेने भर से मनुष्य अपने इन मूल रोगों से मुक्त हो जाएगा? ये वे रोग हैं जिनके आगे मनुष्य अपने आपको निरा बालक देखता है। एक बच्चे से अगर कहो कि तुम जिन रोगों से आक्रांत हो उनसे मुक्त क्यों नहीं हो जाते, तो बालक हम पर हँसेगा। उलटा हम पर ही प्रतिप्रश्न थोपेगा - क्या रोगों से मुक्त
३२ / ध्यान का विज्ञान
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