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मिलने वाली ऊर्जा ध्यान की ओर अभिमुख हो चलेगी
हम ध्यान में बैठें और सर्वप्रथम अपने स्थूल शरीर को सजगतापूर्वक निहार लें। शरीर के प्रत्येक अंग को, उसकी हर भाव-भंगिमा और संवेदना को देखें, उसके प्रति सजग हों, जागरूक हों। अपनी सजगता को दूसरे चरण में हम अपने विचारों के प्रति लाएँ । हमारे भीतर जो भी चल रहा है, जैसा भी चल रहा है, उसके प्रति किसी भी प्रकार का कोई भी विरोध या दमन का भाव न हो। हम विचारों से अलग होकर विचारों को देखें । जैसे कोई व्यक्ति किनारे पर बैठकर सागर की लहरों को निहारता है, ऐसे ही हम विचारों से अलग होकर विचारों को देखें । देखने वाला तट पर बैठा है और विचार सागर में उठने वाली लहरों की तरह आ रहे हैं । ध्यान रखें, हम कहीं विचारों के सागर में खो न जाएँ । दृष्टा और दृश्य में पृथकता बरकरार रहे। धीरे-धीरे आप पाएँगे कि विचारों की उधेड़बुन विलीन होती जा रही है । अंतरमन में शांति घटित होती जा रही है और आप अपने को अस्तित्व के साथ एकाकार पा रहे हैं । ऐसी स्थिति में आप स्वयं को एक मौन अनुभव दशा में पाते हैं, आनंदपूर्ण अहोभाव दशा में । चित्त में विश्राम और अंतर्हृदय में निमग्नता ध्यान का यही आधार - सूत्र बनता है ।
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जैसे-जैसे विचार और वृत्तियाँ विसर्जित और विलीन होने लगती हैं, चित्त पर छाया स्वप्न और कल्पना - दृश्यों का कोहरा छँटने लगता है । दृष्टा का, स्व-सत्ता का सूर्य उग आता है । दृश्य खो जाते हैं, दृष्टा ही दृश्य हो जाता है। ध्यान मनुष्य को उसके समग्र जीवन का, समग्र अस्तित्व का यह विकास और उपहार प्रदान करता है । अंतर - लीनता और अंतर - सजगता ही इस सारे वातावरण की पृष्ठभूमि है ।
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ध्यान का प्राण : साक्षी भाव / ३१
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