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पाते, उससे पहले वे दोनों घुड़सवार वहाँ पहुँच गये जहाँ वह हीरा पड़ा था। दोनों में तलवारें खिंच गईं। दोनों हीरे को पाना चाहते थे। दोनों को ही हीरे के रहस्य का पता चल गया। यह वास्तव में कोहिनूर जैसा ही कोई बेशकीमती हीरा था। कोहिनूर के लिए दो तो क्या, सौ-सौ लाशें बिछाई जा सकती हैं, दोनों लहू-लुहान होकर वहीं गिर पड़े। __ भर्तृहरि इस लीला को देखकर मुस्कुराये। कोहिनूर वहीं था। उसके लिए दो लाशें बिछी थीं। भर्तृहरि ने इस स्थिति से कुछ प्रेरणा ली। पलकें बंद की और ध्यान में डूब गये। साक्षी ही सुखी रहता है। यह सुख आज उन्होंने पा लिया था।
प्रतिक्रियाओं से बचने के लिए हम किसी की निंदा-स्तुति में रस न लें, टीका-टिप्पणी में रुचि न लें। हम तो जो हैं उसी में मस्त रहें। मन में मौन और चित्त में पूर्ण विश्राम - ध्यान और साक्षित्व की सिद्धि के लिए यही सिद्ध सूत्र है।
हम मन की हर क्रिया को गिरने दें। विकल्पों की उधेड़बुन तो दूर, सोचने की धारा को भी मौन हो जाने दें। मन में बस मौन हो, स्वयं में स्वयं का बोध हो। मन को हम परिपूर्ण विश्राम में ले जाएँ। हमारा अंतरजगत निष्कंप हो जाये, निस्तरंग हो जाये, तो फिर न केवल हम स्वयं के स्वयं साक्षी होंगे, वरन् अपने द्वारा संपादित होने वाले हर कार्य और हर गतिविधि के प्रति भी साक्षी ही रहेंगे। हमसे हर कार्य होगा, लेकिन इसके बावजूद हमारी सजगता हमसे नहीं छूटेगी। हम सदा अपनी स्व-सत्ता में स्थित रहेंगे। यहाँ तक कि झाड़ लगाते हुए भी, स्नान करते हुए भी, भोजनपानी स्वीकार करते हुए भी।
प्रश्न है यह सजगता आएगी कैसे? सजगता की सिद्धि का सहजसरल शुरुआती दौर क्या होगा? हम इसे समझें। श्वास के प्रति सजगता, साक्षित्व के उदय की बड़ी सशक्त कला है। श्वास के प्रति हम जितने सजग होते जाएँगे चित्त का स्पंदन उतना ही न्यूनतर होता जाएगा। इससे हमारी श्वास मधुर, संतुलित और लयबद्ध तो होगी ही, हमारी चित्त-वृत्तियों पर भी इससे अंकुश लगेगा। उनकी तीव्रता में मंदी आयेगी। श्वास की मन को
३० / ध्यान का विज्ञान
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