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साक्षित्व के उदय के लिए हममें सतत यह सजगता चाहिये कि हमारे द्वारा क्रिया भर हो, किसी तरह की कोई प्रतिक्रिया नहीं। क्रिया बंधन नहीं होती। क्रिया जीवन के लिए अनिवार्य है, जीवन के संचालन और व्यवस्थापन के लिए अनिवार्य है। जैसे ही हम प्रतिक्रिया के धरातल पर पाँव रखते हैं कि मानो शांति के सरोवर में एक कंकरी गिरा दी। कंकरी कितनी भी छोटी क्यों न हो, तालाब को तो तरंगित कर ही देती है।
प्रतिक्रियाओं से बचने के लिए बेहतर होगा कि हम किसी पर किसी बात की टिप्पणी न करें। जो हो रहा है, उसके द्वारा ऐसा होना है इसलिए हो रहा है। किसी की 'होनी' में हस्तक्षेप करने वाले हम कौन होते हैं? अगर हम हस्तक्षेप करते हैं तो उससे तो उसकी बला टल जायेगी, लेकिन उससे उछलकर हम पर आ गिरेगी। हमें लाभ क्या होगा यह तो वक्त बताता है, किन्तु हानि अवश्य हो जाती है। मन में उठापटक और ऊहापोह जारी हो जाती है, चित्त हिंसा-प्रतिहिंसा, निंदा-प्रतिनिंदा, व्यामोह-विद्वेष, क्रोध
और उत्तेजना के कण्टक पथ की ओर बढ़ जाता है। अनायास ही सही, मन एक नये वातावरण को घड़ लेता है। मन मकड़जाल को बुन लेता है।
एक लड़के ने दूसरे से कहा, 'अब अगर कुछ ज्यादा बोला तो तेरी बत्तीसी निकाल दूंगा।' दूसरे ने कहा, 'तू तो बत्तीस निकालेगा; मैं चौंसठ निकाल दूँगा। दोनों की इस गुत्थमगुत्थी की बात को सुनकर तीसरे ने बीच में ही टोका, जनाब, मुँह में दाँत ही बत्तीस होते हैं, तो चौंसठ कहाँ से तोड़ दोगे'? उसने कहा, 'मुझे पता था कि तू बीच में ज़रूर बोलेगा, बत्तीस इसके और बत्तीस तेरे।'
साक्षी की स्थिति तो यह होती है कि कहते हैं : राजर्षि भर्तृहरि किसी पहाड़ी पर चिंतन-मुद्रा में बैठे थे तभी उनकी दृष्टि पहाड़ की तलहटी पर किसी चमकते पत्थर पर पड़ी। उन्होंने ध्यान से देखा तो चौंके। क्योंकि वह पत्थर, पत्थर नहीं था। गोलकुंडा से निकला कोई आश्चर्यजनक हीरा था। राजर्षि के मन में उस हीरे को पा लेने का विचार कौंधा। ऐसा करने के लिए वे खड़े होते, तभी देखा पूर्व दिशा की ओर से किसी घुड़सवार सैनिक को उसी मार्ग की ओर आते हुए। वे चौंके यह देखकर कि पश्चिम दिशा की ओर से एक और घुड़सवार आ रहा था। वे माजरा कुछ समझ
ध्यान का प्राण : साक्षी-भाव / २९
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