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ध्यान का अर्थ है लगना, लयलीन होना। ध्यान सीधे-सादे अर्थ में अंतरलीनता है, अंतर-सजगता है। यह प्रवृत्ति में भी निवृत्ति का मार्ग है। कार्य में अकर्ता-भाव है। दृश्य और दृष्टा के बीच अलगाव का बोध बनाये रखने की कला है। हम अपने में जग जाएँ तो ध्यान तो हमारे लिए इतना सहज हो जाएगा कि फिर ध्यान करने की जरूरत नहीं पड़ेगी। हमारी अंतरदृष्टि में ध्यान की ही रोशनी होगी।
ध्यान कोई क्रिया नहीं है, यह तो क्रिया के द्वारा ही अक्रिया में प्रवेश की पहल है। ध्यान तो हमें सुखद मौन देता है। एक ऐसा अंतर-मौन, जो हमारी हथेली में जीवन-तत्त्व का बोध प्रदान करता है। यों स्वयं के अस्तित्व का पता लगाना आदमी के लिए आकाश में थेंगले लगाने के समान है। स्वयं की अंतरमौन-दशा में व्यक्ति को जिस तत्त्व का बोध होता है वही उसका मूल 'जीवन-तत्त्व' है, आत्मा और प्राण-तत्त्व है। मन के प्रवाह के चलते व्यक्ति को अपनी निजता का पता नहीं चल पाता, मन के विसर्जित हो जाने पर अंतर-जगत में जिस संपदा का अनुभव होता है, मूलत: वही हम हैं, हमारा चैतन्य और त्रैकालिक सत्य है।
ध्यान का असली गुर साधक का साक्षी-भाव है। साक्षी यानी दृष्टा की सजगता। साक्षी-भाव जीवन में दृष्टा-भाव का सर्वोदय है। कार्य और जगत के प्रति कर्ता-भाव की विलीनता। साक्षी यानी मौन। एक ऐसा मौन जिसे हम दीये की निष्कंप लौ कहेंगे। हवाएँ ज्योति को डगमगा देती हैं। जैसे हवा-रहित कक्ष में दीपक अकंप-अखण्ड जलता है, चित्त और चित्तप्रवृत्ति के प्रति रहने वाली ऐसी सजगता जीवन-विज्ञान की भाषा में साक्षित्व कहलाती है। साक्षित्व यानी चॉयसलेस अवेयरनेस । एक ऐसी सजगता जिसमें 'यह' या 'वह' दोनों में किसी एक के चयन का कोई भाव नहीं होता। जैसे दीपक की लौ सबको देखती है, सबको प्रकाशित करती है, किंतु किसी को अपने में ग्रहण नहीं करती। वस्तु और व्यक्ति के प्रति रहने वाली यह वीतराग, वीतद्वेष, वीतमोह भावना साक्षित्व कहलाती है। साक्षित्व ही वास्तव में ध्यान की कुंजी है, ध्यान की नींव है, ध्यान का प्राण और ध्यान की आत्मा है। बगैर साधना का जीवन महज चलती-फिरती काया को ढोना
है।
२८ / ध्यान क Jain Education International
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