________________
के गर्त में खो जाती है । हमारा प्रेम मानसिक नहीं, हार्दिक होना चाहिए । हृदय से जन्मा प्रेम मनुष्य को न केवल आनंद की विरल अनुभूति देता है वरन् उसे अस्तित्वमय बना देता है। प्रेम से बढ़कर जीवन का और कौनसा सेतु होगा ! माना प्रेम में पाप भी समाया है, किंतु प्रेम में जितना प्रकाश है उतना और किसी में कहाँ, प्रेम से बड़ा और कोई पुण्य नहीं । जीसस तो कहते हैं प्रेम ही भगवान है । कृष्ण प्रेम के अवतार रहे ।
1
व्यक्ति का व्यक्ति के प्रति, देह का देह के प्रति आकर्षण प्रेम की असलियत नहीं है । असली प्रेम तो वह है जो आदमी को गिराये नहीं, बल्कि उसे ऊँचा उठाये। प्रेम भले पति - पत्नी का ही क्यों न हो, किंतु प्रेम की असली अस्मिता और सम्यक् निष्पत्ति ही तब हो पाती है, जब दांपत्य का प्रेम हमें मैत्रेयी ओर गार्गी बना देता है । आज जिसे लोग प्रेम की संज्ञा देते हैं वह प्रेम कोई प्रेम थोड़े ही है, वह तो प्रेम का फूहड़पन है। हमने फूहड़पन को ही प्रेम कह डाला है। उस फूहड़पन ने तो प्रेम का ऐसा मटियामेट कर डाला है कि किसी सभ्य और सज्जन पुरुष को अपने मुँह से किसी के लिए प्रेम शब्द का उच्चारण करते हुए भी सोचना पड़ता है।
मनुष्य का जीवन अत्यन्त प्रेमपूर्ण, अत्यन्त हार्दिक होना चाहिये । प्रेम तो मनुष्य की पूजा है । है । प्रेम से बढ़कर प्रणाम क्या, प्रेम से बढ़कर आशीष क्या? प्रेम विनम्र हो जाता है तो उससे प्रणाम के अंकुर फूटते हैं। प्रेम मुस्कराने लगता है तो उससे वात्सल्य और आशीष की रसधार उमड़ने लगती है
I
प्रेम को तुम जीवन का, जगत् का आधार समझो। प्रेम में समायी है भगवत् पूजा, प्रेम में समाये हैं सारे अवतार, सारे पैगंबर । भारत की 'सूफ़ीपरम्परा' प्रेम और ध्यान का अद्भुत मिश्रण है । माँ द्वारा बेटे का माथा चूमना, मित्र द्वारा मित्र को गले लगाना, परस्पर हाथ मिलाना और नमस्कार करना प्रेम के ही प्रगट रूप हैं। श्रद्धा में आदमी श्रद्धेय का चरण भी चूम लेता है । धन्यभाग अगर कोई श्रद्धेय तुम्हारा माथा चूम ले । आत्मीय आशीष का इससे बड़ा रूप और कोई नहीं होता। इस आशीष में प्रेम का जो प्राकट्य है, वह अनुपम है। चरण चूमना, माथा चूमना, भावों का अतिशय अतिरेक है । बाइबिल की कहानियाँ बताती हैं कि लोग जीसस के चरण चूमा करते थे और अपने आँसुओं से उनके चरण पखारते थे। सिर के बालों से उनके
I
२२ / ध्यान का विज्ञान
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org