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की समग्रता के दौरे में हर बूँद सागरमय है। अस्तित्व समग्र है। ध्यान से जुड़कर हम समस्त अस्तित्व से जुड़ रहे हैं, समग्र अस्तित्व के प्रति संवेदनशील और करुणाशील हो रहे हैं ।
विश्व की दूरियाँ आज बहुत सिमटी हैं, किन्तु मनुष्य की आपसी दूरियाँ इतनी बढ़ गयी हैं कि बड़े शहरों में तो पड़ोसी से भी छठे - छमास ही भेंट हो पाती है । व्यक्ति का अपने पड़ोसी के प्रति भी विश्वास नहीं रहा । फिर विश्व-बंधुत्व के प्रति वह कैसे आस्थाशील हो पाएगा। हर आदमी दूसरे आदमी को शक - शुबह की दृष्टि से देखता है । ऐसी स्थिति में इंसानियत के मूल्य कैसे बच सकते हैं। ध्यान हमारे आत्म-विश्वास को जगाता है, समग्र अस्तित्व से जोड़ता है, प्राणिमात्र के प्रति संवेदनशील और मानवीय बनाता है।
हम जगत के अंश हैं, हमें यह विश्वास होना चाहिये । परिवार समाज या जाति ही हम और हमारा नहीं हैं, वरन् सारा जगत हमारा है । जल, थल, नभ में कोई भी तो स्थान ऐसा नहीं है, कोई भी तो प्राणी ऐसा नहीं है जिससे अस्तित्व की दृष्टि से हमारा संबंध न हो। 'वसुधैव कुटुम्बकम्' सारी वसुधा हमारा परिवार है। मनुष्य ही क्यों, क्या चींटी-मकौड़ी भी हमारी करुणा के पात्र नहीं हैं ? क्या फूल या पेड़-पौधे हमारे प्रेम की अपेक्षा नहीं रखते ? आखिर, हम सभी तो एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं। यह सृष्टि अन्योन्याश्रित सिद्धांत पर टिकी हुई है।
हम ध्यान में जीएँ और अपने हृदय में सारे जगत को ले आएँ । हृदय में प्राणिमात्र के प्रति प्रेम और करुणा की हिलोर उठने दें। अपने मन की शांति और पवित्रता की बीन दसों दिशाओं के लिए बजने दें। हम जगत के हैं, सारा जगत हमारा है । प्राणिमात्र हमारा है । पशु-पक्षी, कीट-पतंग, पेड़-पौधे हमारे हैं । और तो और, सागर और सितारे भी हमारे हैं । हमारी ओर से सबका सम्मान है। हम यहाँ कोई अनजान अजनबी नहीं हैं । अस्तित्व की दृष्टि से हम सभी एक दूसरे से संबद्ध हैं, पूरे जगत से जुड़े हुए हैं।
हमारी ओर से एक चींटी अथवा एक तिनके का भी अपमान और उपेक्षा न हो। हम विश्वमैत्री के मंत्र को इतना आत्मसात् करते चले जायें
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ध्यान : व्यक्ति से विश्व की ओर / १९
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