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________________ न होंगे, अपनी चेतना को सृजन-पथ नहीं देंगे, अपनी चेतना को हार्दिक प्रेम की अस्मिता, मानसिक शांति की गरिमा, जीवंत करुणा की आर्द्रता और आत्मिक आनंद की उत्कर्षता नहीं दे पाते हैं, तो उस जीवन को हम लाश न कहें तो और क्या कहें? मनुष्य का निकम्मापन उसका मुर्दापन है। उसकी सक्रियता उसका कर्मयोग है। मनुष्य जीवंत हो, मुर्दा नहीं। वह कर्मयोगी हो, निष्क्रिय नहीं। ध्यान हमें जितना अपने आपसे जोड़ता है, उतना जगत से भी। ध्यान जगत से पलायन नहीं है, वरन् स्थितप्रज्ञ होकर जगत को और अधिक प्रेम और आनंद के साथ जीने का अनुष्ठान है। वह हमें निस्पृह बनाता है। एक ऐसा निस्पृह जो दो-चार के राग से ऊपर उठा कर व्यक्ति को सारे संसार का बना देता है। वह ध्यान व्यक्ति को सदाबहार सुखी बनाता है, किन्तु उस सुख को अकेले भोगने की बजाय सबमें बाँटने में सुख की सही संतुष्टि और आनंदानुभूति प्रदान करता है। ध्यान तो हमें वह चिर मुस्कान देता है, जो जीवन-जगत की हर धूप-छाँप के बावजूद मंदिर के किसी अखण्ड दीप की तरह प्रज्वलित रहता है। लोग समझते हैं कि ध्यान के लिए संसार को छोड़ना पड़ता है। ध्यान के लिए एकांत और गुफावास को ग्रहण करना पड़ता है। अगर ऐसा ही है तो ध्यान समाज के लिए हितकारी नहीं, वरन् समाज से पलायन है। जबकि ध्यान का विज्ञान तो हमें यह बताता है कि बगैर ध्यान के न तो समाज का, समाज के किसी भी घटक का समुचित विकास होता है और न ही व्यक्ति की आंतरिक ऊर्जा समाज को उसका वास्तविक सौदर्य, उसकी वास्तविक सौम्यता और सुधार दे पाती है। ध्यान व्यक्ति को मृत नहीं बनाता है। वह जैसा है, उसे और अधिक जीवंत, सकारात्मक बनाता है। ध्यानका-जगत चेतना-का-जगत है। बगैर ध्यान का संसार केवल शोर-शराबा ध्यान से जुड़कर हम अस्तित्व से जुड़ रहे हैं। सारे भेद अस्तित्व के बाहर हैं। अस्तित्व की समग्रता में न आप भिन्न हैं और न ही कोई और। पानी की बूंदें कितनी भी अलग-अलग क्यों न दिखती हों, पर अस्तित्व १८ / ध्यान का विज्ञान Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003865
Book TitleDhyan ka Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2011
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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