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इतिहास के एक प्रसिद्ध संत अनाथी के बारे में कहा जाता है कि जब वह किसी अशोक वृक्ष के तले बैठा था तो श्रेणिक नाम के सम्राट ने उससे पूछा, 'युवा संत, तुम इस उम्र में साधना - लीन हो चुके । क्या तुम्हारे कोई माता-पिता बीबी - बच्चे नहीं हैं ?' संत ने एक रहस्यमयी मुस्कान के साथ कहा, 'सम्राट, मैं अनाथ हूँ ।' श्रेणिक ने कहा, 'अगर ऐसी बात है तो मैं तुम्हारा नाथ होने को तैयार हूँ । तुम्हें स्वतंत्र राजमहल में रहने और जीने का निमंत्रण देता हूँ ।' संत फिर मुस्कराया । श्रेणिक को समझने में देर नहीं लगी कि इस बात की मुस्कान, मुस्कान नहीं, वरन उसके द्वारा नाथ होने की बात पर मारा गया व्यंग्य है। संत इतना सा ही बोला 'सम्राट, उसे मैं अपना नाथ कैसे बनाऊँ जो स्वयं ही अनाथ है।' संत की बात पर सम्राट चौंका। उसके एक वाक्य ने ही उसका सारा गरूर मटियामेट कर दिया । संत की जगह और कोई होता तो सम्राट की तलवार उसकी गर्दन पर होती । पर सम्राट ने अपने ऊपर काबू रखते हुए कहा, 'जिसके पास अथाह संपत्ति हो, अकूत राज - खजाना हो, राज-रानियाँ और राज ऐश्वर्य हो, जिसके नाम से दुश्मनों की सेना काँपती हो उसे अनाथ कहना ?'
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संत अनाथी ने कहा, 'नाथ और अनाथ का जो अर्थ आपने लगाया है, वही चूक मुझसे भी हुई थी। सच तो यह है कि सम्राट मैं भी आपके पड़ोसी देश का राजकुमार हूँ, लेकिन एक बार मैं किसी भयानक रोग से ग्रस्त हो गया। मेरे पिता देश के सम्राट रहे, राजवैद्य, राजमाता, मेरी पत्नियाँ और पुत्र सभी मेरी सेवा में तत्पर थे लेकिन अफ़सोस उनमें से कोई भी मेरी पीड़ा को दूर न कर पाया । उसमें से एक अंश पीड़ा की हिस्सेदारी भी नहीं बँटा पाया। मेरे रोग और मेरी पीड़ा का मैं ही अकेला भोक्ता रहा । सबका नाथ होकर भी, सब मेरे नाथ होकर भी, सम्राट मैंने पाया कि यह राजकुमार अनाथ है। मैंने संन्यास का संकल्प लिया उस वास्तविक नाथ की खोज के लिए जिसे अनाथ की नौबत से गुजरना नहीं पड़ता । आज मैं परम सुखी हूँ। जो स्वयं का स्वामी होता है वह सदा सुखी होता है । जो औरों के पराधीन होकर जीवन जीता है, उसे अंततः दुखों का ही सामना करना पड़ता है। ठीक वैसे ही जैसे मैंने किया । कहो सम्राट ! क्या तुम या कोई और किसी का नाथ हो सकता है सिवा अपने आपके ।'
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For Personal & Private Use Only स्वयं की अन्तर्यात्रा / १३.०
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