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________________ बोध होता है, अंतर्हृदय में विकसित हुआ एकाकीपन का फूल होता है, अंतस् के आकाश में जीने का आनंद होता है। एकाकीपन की अंतर्यात्रा में दूसरा गौण हो जाता है। एकाकी शब्द का अर्थ है जहाँ एक ही अकेला है। एक के अतिरिक्त और कोई नहीं। एकाकीपन से ही एकाग्रता की स्थिति बनती है। एकाग्रता का अर्थ हैएक है जहाँ आगे, बाकी सब पीछे। हमारा चित्त जब एक ही केन्द्र पर स्थित होता है तब उसे ही हम एकाग्रता कहते हैं। जब हम एकाकीपन की यात्रा में, स्वत्व-बोध की यात्रा में उतरते हैं तो बाहर के लोग बाहर ही रह जाते हैं। उनके प्रति रहने वाली राग-द्वेष की ग्रंथियाँ बाहर ही फेंक देनी पडती हैं। अगर हम उनसे उपरत नहीं हो पाते तो इसका अर्थ यह हुआ कि हम स्वयं की वास्तविक निजता के प्रति उत्सुक हो ही न पाये। भीड़-भाड़ ही हमें रास आती है। दुःख को भी सुख का प्रतिभास मानकर स्वीकार कर लेते हैं। ___अंतर्यात्रा में तो बाहर के सारे संबंध बाहर ही छूट जाने चाहिये। जिन क्षणों में तुम अंतर्-ध्यान में उतर रहे हो, तुम्हें सर्व संबंधों के त्याग का संकल्प स्वीकार हो। अंतश्चेतना को हर ओर से अपने में लौटा लो जैसे साँझ पड़ने पर सूरज अपनी रश्मियों को अपने आगोश में समेट लेता है ऐसे ही हम भी अपनी चेतना को लौटा लायें। प्रतिक्रमण हो जाये। मूल स्रोत में उतरना है तो बीच में चट्टानों का क्या काम? अंतर्-सौंदर्य को निहारना है तो बीच में परदों का क्या तुक। अंतर-ज्योति को निहारने के लिए हमें हर आवरण को हटाना होगा। अन्तमूर्ति का अनावरण करना होगा। बाहर की बातें याद आती रहेंगी तो इसका अर्थ यह हुआ कि अंतर्यात्रा बाधित हो गई। अंतर्जगत की ओर कदम उठाया और अपशकुन हो गया। बाहर को बाहर छोड़ो। बाहर की बात कोई अंदर हो तो उसे ऊलीच फैंको। नोका में आया पानी किस काम का। पानी तो तुम्हें निकालना है, भरना नहीं है। भरा तो तब जाता है जब पानी के लिए कोई कुण्डी हो। कुएँ में बाहर का पानी काम नहीं आता। न बाहर का पानी, न बाहर का ज्ञान। कुआँ स्वयं पानी देता है, जीवन स्वयं ज्ञान देता है। एकाकीपन में उतरे हो तो वह स्वतः ही तुम्हें आनंद का उत्सव प्रदान करेगा। तुम्हें तुम्हारे जीवन का सुख, जीवन का वैभव, जीवन का पुरस्कार प्रदान करेगा। १२ / ध्यान का विज्ञान Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003865
Book TitleDhyan ka Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2011
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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