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तो यह है कि जीवन को सदा सुखी बनाये रखने का यही गुर है ।
मैं - मेरा, तू - तेरा, यह खटपट तो हमारी सुख-शांति को खोखला करती है । हम अकेले आये हैं, हमें अकेले जाना है, तो फिर जीवन के नाम पर जो मध्य-काल मिला हुआ है, उसमें इतनी उधेड़बुन क्यों ? हम अपने उस शाश्वत एकत्व का बोध क्यों न रखें ? सात जन्मों के सम्बन्धों की दुहाई देते क्यों फिरें ? हम मस्त रहें, मस्त । हर हाल में मस्त ! कोई साथ है तो भी मस्त और अकेले हैं तो भी मस्त हैं। किसी की इतनी परवाह मत करो, कृपया अपनी ही परवाह करो। किसी के द्वारा गाली दिये जाने पर खुद को क्रोध और आक्रोश की आग में फैंक देते हैं। किसी के द्वारा प्रशंसित होकर क्यों गर्वोन्नत हो जाते हो । किसी की निंदा-स्तुति से स्वयं को प्रभावित किये बिना हमें अपनी निजी प्रगति में विश्वास रखना चाहिये ।
अंतर - हृदय में स्वयं के एकाकीपन का बोध स्वयं में ही विकसित हुआ फूल है। एक ऐसा फूल जिसकी सुषमा और सुवास से हमारे जीवन का कण-कण आह्लादित रहता है। एकत्व के बोध में अनायास ही स्वास्थ्य समाया हुआ है । जिसे एकत्व का बोध है, वह सदा स्वस्थ रहता है । अपने अंतर - जगत में वह सदा आनंदित रहता है । संसार में जीने का कैसे आनंद लिया जाता है कोई जरा उससे पूछे जिसने अपने उस एकाकीपन को चीन्हा है, अंतर्यात्रा को जीया है।
अध्यात्म आनंद है, अकेले होने का आनंद । अंतर्यात्रा परम एकाकीपन की यात्रा है। अंतर्यात्रा में और किसी को साथ नहीं ले जाया जा सकता, वहाँ तो एक ही सूत्र काम में आता है, 'एकला चलो रे' । न वस्तु को भीतर ले जाया जा सकता है, न व्यक्ति को; न मकान को ले जाया जा सकता है, न दुकान को, न माता - पिता को ले जाया जा सकता है, न पति-पत्नी को । चित्त को इन सब संबंधों और निमित्तों से अलग हटा लिया जाता है । एकाकी ही वहाँ प्रवेश होता है । गुरु है तो गुरु, शास्त्र है तो शास्त्र, कोई प्रतिमा या आलंबन है तो वे भी । एकाकीपन की अंतर्यात्रा में वे सब भी, उनकी स्मृतियाँ और विनम्रता भी अपने अंतर्जगत से हटा देनी पड़ती है । जीवन की अंतर्यात्रा में केवल तुम ही तुम्हारे संगी होते हो, तुम ही तुम्हारे गुरु, तुम ही तुम्हारे शिष्य होते हो, वहाँ तुम होते हो, तुम्हारे अस्तित्व का
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स्वयं की अन्तर्यात्रा / ११
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