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नहीं चाहिये। व्यक्ति श्रम करे, सृजन करे, नवनिर्माण और नवविकास में आस्था रखे, किंतु वह संसार के राग-रंग में इतना घुल-मिल न जाये कि स्वयं को ही भूल बैठे, निजत्व के प्रति रहने वाले दायित्वों की उपेक्षा कर बैठे।
हम सबके साथ जीयें, सबसे प्रेम करें, सबकी सेवा करें, किंतु हमें इस बात का सदा बोध रहे आखिर मैं एक हूँ, एकाकी हूँ, सब के साथ रहते हुए भी मैं सबसे अलग हूँ। मुझे जो नाम दिया जाता है वह मैं नहीं हूँ, और जो मैं हूँ उसे नाम दिया नहीं जा सकता । अनासक्ति का फूल खिलाने के लिए यह आधार-सूत्र है ।
मैं एक हूँ, मेरा स्वतन्त्र अस्तित्व है । मुझे राग-रंग से ऐसे ही ऊपर उठे हुए रहना है, जैसे माटी के दीये से ज्योति ऊपर उठी हुई रहती है, जल और दलदल से कमल का फूल ऊपर उठा हुआ रहता है। सबके बीच, फिर भी सबसे स्वतंत्र सबसे संबद्ध, फिर भी सबसे मुक्त। अपने एकाकीपन का बोध जहाँ मनुष्य को मौलिक मनुष्य बनाता है वहीं उसकी आत्म-स्वतंत्रता और मुक्ति के आकाश को भी उन्मुक्त रखता है । तब हम अनुकूलताओं को पाकर अहंकार से नहीं घिरते, प्रतिकूलताओं को पाकर खिन्न एवं विपन्न नहीं होते। जिसे अपने एकाकीपन का बोध है, वह जीवन और व्यवहार की हर उठापटक के बावजूद शांत और सुखी रहता है। घाटा हो या मुनाफा, मिलन हो या बिछोह, सुख का समझौता हो या दुख की दरार, एकत्वबोध मनुष्य को उसके सदाबहार आनंद से भटकने नहीं देता । जनमानस या परिजनों की ओर से मिलने वाली उपेक्षा, घर-गृहस्थी में घटने वाली प्रतिकूल परिस्थितियाँ हमें प्रभावित नहीं कर पाती हैं । हमारे जीवन में सदा मुस्कान रहती है।
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यह बहुत बड़े रहस्य की बात है कि मुस्कान में ही मुक्ति है । कृष्ण ने समता को समाधि का बीज माना और महावीर ने सामायिक को । क्या हम बता सकते हैं कि यह समता और सामायिक क्या है ? उसका विधायक रूप क्या है ? अनुकूल और प्रतिकूल दोनों हालातों के प्रति उदासीन रहना, समता और सामायिक नहीं है, वरन् हर हाल में प्रसन्न रहना, सिक्के के दोनों पहलुओं में आनंदित रहना यही समता है, यही सामायिक है । सच
१० / ध्यान का विज्ञान
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