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स्वयं की अन्तर्यात्रा
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वन-पथ की डगर पर मनुष्य अकेला आया है, जीवन का यह सहज विधान है कि उसे अकेले जाना है । संसार के नाम पर उसके जो संबंध बनते हैं, वह उसके अकेलेपन को भुलाने के लिए, एक से अनेक होने का विस्तार भर है । उपनिषद् कहते हैं : 'स एकाकी न रेमे, एकोऽहं बहु स्यामः ' परमात्मा भी एकाकी था, विस्तार की धारा प्रारम्भ हुई और एक से अनेक / अनगिनत हो गया । संसार के सर्जन और विस्तार की यही कहानी है।
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एक से अनेक में बँट जाना मन की माया का विस्तार है । अनेक से एकत्व में लौट आना स्वयं की स्वयं में वापसी है। मनुष्य अपने जीवन में कुछ भी करे, कर्मयोग उसे करना ही चाहिये । समाज और संसार से विमुख होना धर्म नहीं सिखाता, किंतु हमारे हाथ से हमारा मूल स्रोत छिटकना
स्वयं की अन्तर्यात्रा / ९
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