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यदि हम अंत:प्रेरणा से जीयेंगे, तो हमारा जगत के साथ ऐसा व्यवहार होगा जिसे हम स्वयं के प्रकाश का प्रतिबिम्ब कहेंगे । स्वयं के प्रति लापरवाह होने के कारण ही, अपने भीतर की प्रेरणा और संदेशों को अनसुना करने के कारण ही मनुष्य का जीवन मूच्छित और अज्ञानमूलक बना हुआ है । वह अंतर-बोध से नहीं जी रहा है। मुखौटे पहन लिए गए हैं। हमारा मौलिक स्वरूप हमारे हाथ से छिटक गया है । हम अपनी प्रेरणा से नहीं औरों की प्रेरणा और सलाह से काम कर रहे हैं । हम औरों के चलाये चल रहे हैं औरों के नचाये नृत्य कर रहे हैं । और तो और, शिक्षा-दीक्षा भी हम वही कर रहे हैं जैसी हमें लोग सलाह देते हैं । उस विषय के प्रति हम स्वयं को दृढ़तापूर्वक जोड़ नहीं पाते जिसके प्रति हमारी अपनी रुचि - अभिरुचि होती है, नतीजा यह निकलता है कि आदमी होना चाहता है कुछ और हो जाता है कुछ। स्वयं की रुचि होती है संगीत के प्रति, पर घर वालों का आग्रह होता है डॉक्टर बने। ऐसी स्थिति में संगीत से जुड़ी आत्मा डॉक्टर बन बैठती है और डॉक्टर की इच्छा रखने वाला व्यक्ति संगीतकार या चित्रकार बन जाता है।
एक बच्चे को क्या होना चाहिये, प्रकृति के घर से उसका लेखाजोखा उसके साथ ही तय है। किंतु हमारा अहंकार प्रकृति के खिलाफ चलता है । हम यह देखने का प्रयास नहीं करते कि बच्चे की रुचि किस में है । हम अपने बच्चे को अपने हिसाब से बनाना चाहते हैं । उसे या तो जैसा हम चाहते हैं वैसा बनाते हैं या उसे पुश्तैनी धंधा ही सौंपते हैं । व्यक्ति की निजता क्या है, उसका निजत्व और व्यक्तित्व क्या है, हम उसकी जड़ों को खोजने का प्रयास नहीं करते हैं । हमारा अंतस् जिस मार्ग की ओर झुकाव रखता है, अगर उसे बाहर से भी वैसा ही वातावरण, वैसा ही प्रोत्साहन मिले, तो उसका सही और मौलिक विकास होगा । वह दुनिया में आकर कुछ नया कर गुजरेगा । अपनी अस्मिता की स्थापना कर जायेगा ।
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हर व्यक्ति की निजता अपने आप में एक दूसरे से भिन्न और स्वतंत्र होती है। स्वयं की उस निजता की खोज करना ही जीवन की मौलिकता में स्वयं का प्रवेश है । अंतरमन और अंतर - आत्मा के लिए सजग होना वह अंतर्यात्रा है जिसे हम जीवन की तीर्थ-यात्रा कहेंगे। हम अंतःस्थ हों, अपने
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निजता की खोज / ७
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