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________________ इस दूसरे चरण में विकल्पवृत्ति की विपश्यना की जाती है, लेश्याओं का बोध प्राप्त किया जाता है, मन की शांति का अभ्यास किया जाता है। मन का मौन, मन से मुक्त होना ही दूसरे चरण की पूर्ति है। तीसरा चरण हृदय-दर्शन : भावयोग ध्यान के तीसरे चरण में, मनोमस्तिष्क में हुई अविचल स्थिति को हृदय में उतार लाएँ। मन और बुद्धि को हृदय के मानसरोवर में निमज्जित हो जाने दें। जैसे बूंद सागर में समा जाती है, ऐसे ही अपने अहं और चंचल मन को अन्तरहृदय में समा जाने दें। हृदय-प्रवेश में स्वयं को स्थित करें और वहाँ हो रही ध्यान की गहराई में ड्रबे। हम हृदय में स्वयं को देखें और सहृदयता के आनन्द का सहजतया हो रहे रसास्वाद का आकंठ पान करें। हृदय में हुई स्थिति, मन की चंचलता को मौन करती है, मन की अनर्गलता को हटाकर, अन्तर्मन की माटी को उपजाऊ बनाती है। हृदय के ध्यान से हमारी सुषुप्त भाव-शक्ति का जागरण होता है और जीवन के रहस्यों को जानने का द्वार-दरवाजा खुलता है। अन्तरात्मा के आनन्द और अहोभाव का अमृत झरता है। चौथा चरण सहस्रार-दर्शन : बोधियोग हृदय की अवस्थिति और पुलक को ऊर्ध्व मस्तक में ले आएँ ऊर्जाकृत उच्च मस्तिष्क में, जिसे योग ने सहस्रार और ब्रह्मरन्ध्र कहा है। इस चरण में हम स्वयं को स्वस्थ-प्रसन्न, हृष्ट-पुष्ट, श्रेष्ठ मनुष्य और आत्मवान् मानें। दो-तीन लम्बी गहरी साँस लें और मस्तिष्क को उच्च ऊर्जा शक्ति से भर जाने दें। इस संकल्प-बोध के साथ कि मैं अपनी उच्च सत्ता और शक्ति के साथ विचरण करूँगा। यह चरण स्वयं के अस्तित्व की मौन अनुभव-दशा है, आत्म-विश्वास का शिखरारोहण है। इस दौरान अन्त:आकाश में चैतन्य-स्वरूप का बोध साकार होता है। व्यक्ति विशिष्ट ज्ञान-मनीषा का स्वामी बनता है। अन्तिम चरण ११२ / ध्यान का विज्ञान Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003865
Book TitleDhyan ka Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2011
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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