________________
विदेह - दर्शन : परमात्मयोग
अन्तिम चरण में हम मुक्त अस्तित्व से तदाकार हो जाएँ । अतीन्द्रिय शक्ति से, पराशक्ति से, परमात्म-सत्ता से सम्बद्ध/एकलय हो जाएँ ।
यह एकलयता हमें आत्मगत सम्पूर्ण शक्ति को उपलब्ध करवाती है, हम व्यक्तिगत चेतना में परमात्म- चेतना की अनुभूति करते हैं । यह विदेह और मुक्त स्थिति तब तक बनी रहे, जब तक सहज- स्थिति न लौट आये ।
उक्त विधि में दिये गये पाँच चरणों में, प्रथम सप्ताह में पहला चरण दूसरे सप्ताह में पहला- दूसरा चरण, तीसरे सप्ताह में पहला - दूसरा- तीसरा चरण स्वीकार करें। चौथे सप्ताह में चौथे चरण को सम्मिलित करें। इस प्रकार पाँचवें सप्ताह में पहले चरण से पाँचवें चरण तक की सम्पूर्ण विधि आत्मसात् की जानी चाहिये । समय-सीमा बीस मिनट से प्रारंभ की जाये । धीरे-धीरे यह समय-सीमा एक घंटे तक बढ़ा ली जाये ।
इस ध्यान - विधि से जहाँ हम स्वयं से साक्षात्कार करते हैं, स्वयं की शांति, संबोधि और आनन्द - दशा का अनुभव करते हैं, वहीं अतीन्द्रिय शक्ति से सम्बन्ध जोड़ते हैं। संबोधि - ध्यान की यह विधि हमारी बुद्धि को उज्वल बनाती है, मन को शांति का सुकून देती है, हृदय को कोमलता प्रदान करती है, ऊर्जाकृत मस्तिष्क को उच्चतर बनाती है, आत्मा को परमात्म - चेतना की रसानुभूति करवाती है । इसे हम स्वयं के आध्यात्मिक उपचार की कुंजी समझें । यह अत्यन्त सरल और सहज ध्यान - विधि है । ध्यान की विधि को नाम चाहे जो दिया जाये, सारे नाम एक-दूसरे के पर्याय भर हैं । मूल बात एकनिष्ठ प्रयोग करने की है, गहराई में उतरने और डूबने की है, स्वयं की उच्च सत्ता तक पहुँचने की है ।
हम अपनी उच्च सत्ता के सम्पर्क में रहें । हर कार्य, हर गतिविधि ध्यानपूर्वक आत्मविश्वास के साथ सम्पन्न करें। कठिन से कठिन परिस्थितियों में भी स्वयं के आत्मगौरव, आत्मविश्वास और मानसिक शांति को बरकरार रखना जीवन की आध्यात्मिक सफलता है ।
यह है मार्ग ध्यान का, सार है ध्यान के विज्ञान का ।
Jain Education International
ध्यान : विधि और विज्ञान / ११३
www.jainelibrary.org
For Personal & Private Use Only