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सहजता से लें। बस, खुद में उतरना है, खुद को निहारना है, खुद के खालिस नूर का आनन्द लेना है। खुद की मस्ती में मस्त रहना है। ___घबराएँ नहीं, कुछ लोगों का ध्यान जल्दी सधता है, कुछ लोगों के अन्तराय और वृत्ति-संस्कार बड़े पथरीले होते हैं । वे मानो कोठरी-दर-कोठरी रोज सूरज को जन्म देते हैं, और उनका सूरज रोज यतीम हो जाता है। ऐसे सज्जन विचलित न हों, बस धैर्यपूर्वक इस मार्ग से गुजरते रहें। आखिर तो रास्ता पार होगा ही। भीतर उतरे बगैर भीतर की अंधियारी काराओं को काटा नहीं जा सकता, जीवन-सत्य से मुखातिब नहीं हुआ जा सकता, परमात्मसत्ता से सम्बन्ध नहीं जोड़ा जा सकता।
ध्यान हम जब भी करना चाहें, जब भी मन हो, ध्यान में हो लें। सुबह उषाकाल में ध्यान की एक बैठक कर ही लेनी चाहिये। दिन में और रात को सोने से पहले भी ध्यान कर लें तो और अच्छा। ध्यान से पहले शारीरिक स्फूर्ति और नाड़ी-शुद्धि के लिए कुछ योग और प्राणायाम कर लेना उपयोगी रहेगा। स्नान तन-मन को ताजगी देता है, अतः हाथ-पैरमुँह धोकर या नहाकर ध्यान करें।
शरीर स्वयं साधना-कक्ष है। स्वस्थ शरीर और प्रसन्न हृदय - ध्यान की श्रेष्ठ भूमिका है। ध्यान वहाँ करें, जहाँ बाहरी शोरगुल न हो। ध्यान एकान्त और सौम्य वातावरण में करें। ढीले, साफ-सफेद वस्त्र पहनें। नरम आसन बिछाएँ। बैठक वैसी हो, जिसमें आप आराम से दो-चार घड़ियाँ बैठ सकें। हाथ की हथेली को या तो घुटनों पर रखें या गोद में। सुखासन, सिद्धासन, वज्रासन - किसी भी आसन-मुद्रा में बैठ सकते हैं। रीढ, गर्दन
और सिर को सहज सीधा रखें। जो लोग कुर्सी पर बैठकर ध्यान करना चाहते हैं वे इतना ध्यान अवश्य रखें कि कुर्सी की पीठ इतनी ऊँची हो कि हमारे सिर को सहज सहारा दे सके।
ध्यान हमें भीतर की उच्च सत्ता तक पहुँचाता है। इसलिए ध्यान प्रारम्भ करने से पूर्व हम ध्यान-भावना को स्वयं में साकार होने दें और यह संकल्प करें कि मैं अपने साधारण विचारों से ऊपर उठकर अपनी उच्च सत्ता के साथ विचरण करूँगा। ध्यान-कक्ष को निर्मल करने एवं अन्तरमन को सचेष्ट
११० / ध्यान का विज्ञान
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