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लिए ध्याननिष्ठ हो जाए तो जीवन की हर गतिविधि तपोमय हो जाए। जीवन स्वयं तप बन जाये। ___पूजा-प्रार्थना होनी चाहिये, किन्तु स्वार्थ की आपूर्ति के लिए नहीं भगवत्-स्वरूप के दिव्य गुणों की आराधना के लिए, दीप के अर्घ्य समर्पित किये जाएँ अपने अन्तस्-तमस् को मिटाने की भावना से। दान दिया जाये सहयोग और अपरिग्रह के आचरण के लिए, न कि नाम-प्रतिष्ठा और सम्मान पाने के लिए। उपवास का आचरण हो शरीर-शुद्धि और मनोनिग्रह के लिए . स्वाध्याय और ज्ञानार्जन किया जाये, पर पांडित्य, भाषणबाजी और वादविवाद के लिए नहीं, वरन् जीवन-विकास एवं बौद्धिक चेतना के विकास के लिए।
सम्भव है कोई मार्ग मनुष्य को भटका भी दे, उसके लिए निष्फल सिद्ध हो जाए, किन्तु ध्यान भटकाने वाला मार्ग नहीं है। आखिर, ध्यान में उतरकर हम अपने आप में ही तो उतर रहे हैं, अच्छी-बुरी जैसी भी हालत है, हम अपने-आप से ही तो परिचित हो रहे हैं। अपनी आन्तरिक स्थिति क्या है, इसका जायजा लेना न तो कतई अनैतिक, असामाजिक और अधार्मिक है और न ही अवैज्ञानिक और अबौद्धिक। अन्तर्मन की बंजर भूमि को उर्वर करने का प्रयास हर दृष्टि से हितकर और कल्याणकारी है। यह मृण्मय में चिन्मय की, मर्त्य में अमृत की खोज है। ___मनुष्य का लक्ष्य जीवन और मुक्ति-सापेक्ष होना चाहिये। हम अपने जीवन-मूल्यों का सम्बन्ध कोरे परलोक से न जोड़ें। हम अतीत की पुनरावृत्ति होते हए भी हमें वर्तमान-सापेक्ष होना चाहिये। मरणोपरान्त हमें क्या मिलेगा, हमारा क्या होगा, हम कहाँ जाएँगे, इसकी बजाय हम यह देखें हम आज क्या हैं, क्यों हैं, हमारे चित्त की शांति और निर्मलता के उपाय क्या हो सकते हैं, हम स्वयं को इस तथ्य पर केन्द्रित करें। हम कोरी ऊँची बातें करते फिरें और हमारे हृदय की संवेदनाएँ मृत हो जायें, मन का उल्लास संत्रस्त हो उठे, तो वे बातें हमारे किस काम की? उल्टे हम पर ही वे व्यंग्य बन जाएँगी। विस्तार और सुविधा के अंबार खड़े होते जाएँ, पर जीवन की गुणवत्ता घटती जाये, तो यह हमारे लिए अध:पतन से उबरने की प्रेरणा
१०४ / ध्यान Jain Education International
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