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________________ ध्यानः साधना और सिद्धि प्रवृत्ति न बन जाए, वरन् हम अपनी बुद्धि का, अपने विवेक का अवश्य उपयोग करें। हम यह भी अपने विवेक से सोचें कि विषयों का उपयोग कर मैंने क्या पाया, कितना पाया । क्या मैं अब भी विषयों के लिए व्याकुल ही हूँ, या मन शान्त-निर्लिप्त हो गया। माना हम मन की वासनाओं को पूरी तरह निर्मूल नहीं कर सकते पर हाँ, उनको संस्कारित तो कर ही सकते हैं, उनमें परिवर्तन तो ला ही सकते हैं। हम मन को विषय से, उसके निमित्त और उसके विचार से अलग कर उसे प्रकृति के सान्निध्य में ले जाएँ। प्रकृति के मुक्त स्वरूप का उसे रसास्वाद लेने दें। दूसरी बात, हमारा मन जितना निर्मल और निश्चित होगा, वह उतना ही सहज और सुशील होगा । मन की शांति और निर्मलता के लिए जरूरी है कि हम क्रोध-आक्रोश, वैर-विरोध, क्रिया-प्रतिक्रिया, छल-प्रपंच, काम-विकार, चिन्ता-तनाव में उलझे रहने की बजाय जीवन में सबके प्रति प्रेम लाएँ, किसी से अपने प्रति कोई गलती हो जाए, तो उसके प्रति क्षमा और करुणा के भाव ले आएँ । माना हम जीसस की तरह सलीब पर नहीं चढ़ सकते, महावीर की तरह कान में कील नहीं ठुकवा सकते, पर अपनों-परायों के द्वारा होने वाली छोटी-मोटी गलती को तो माफ कर ही सकते हैं। किसी के प्रति अपने मन में गलत विचार उठने को भी हम उतना ही गलत माने, जितना किसी का गलत करना । इससे वैचारिक और मानसिक अहिंसा का पालन होगा और हमारी मन की शांति बनी रहेगी। अपरिग्रह को जीवन का धर्म समझने वाले लोग अपने मन में व्यर्थ के विचारों, विद्वेषों और विकारों को भी अपने लिए परिग्रह ही समझें और जिस तरीके से दिन-रात कंधे पर बोझा उठाकर चलना मूर्खता है, ऐसे ही अपने मन की भी मूर्खता को समझें कि वह कैसे-कैसे विचार, विकार से घिरा और दबा रहता है। तीसरी बात, बेहतर होगा हम मन के आधारभूत ढाँचे को भी बदल डालने की कोशिश करें । हम सरल, सुपाच्य और सात्विक आहार ग्रहण करें । उपनिषद कहते हैं हम जो अन्न खाते हैं, वह तीन प्रकार का हो जाता है । जो स्थूल भाग होता है, वह मल हो जाता है । जो मध्यम भाग होता है, वह रक्त और मांस हो जाता है, जबकि जो सबसे सूक्ष्म भाग होता है, वह मन हो जाता है। इस बात से हम समझ सकते हैं कि शुद्ध खानपान मन के निर्मलीकरण में कितना उपयोगी है । चौथा सूत्र यह है कि हम प्रतिदिन योगासन, प्राणायाम और ध्यान अवश्य करें । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003863
Book TitleDhyan Sadhna aur Siddhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2003
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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