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________________ मन को मिले सार्थक दिशा नहीं है। तुम भी चाहे जैसे हो, लेकिन प्रेम के बिना नहीं रह सकते । प्रेम जीवन का अनिवार्य अंग है। प्रेम के बिना जीवन दुश्वार हो जाएगा। सबके अपने-अपने ढंग हो सकते हैं प्रेम के, लेकिन प्रेम ही न हो, यह नहीं हो सकता । अशुभ विषयों और अशुभ निमित्तों पर प्रेम होने से तुम विकार पाओगे और शुभ विषयों पर ध्यान केन्द्रित होने से प्रेम में विश्व-बंधुत्व का भाव देखोगे। उस ध्यान से अहिंसा, शांति का जन्म होगा, करुणा और आनन्द की उत्पत्ति होगी । बस अन्तरलीन और आनन्द से भरा हुआ मन चाहिए । तब तुम्हारा व्यवसाय भी भगवान के मंदिर का आंगन हो जाएगा। तुमने नानक, कबीर, रैदास को पढ़ा है और जानते हो सभी व्यवसाय करते थे, लेकिन उनकी व्यावसायिकता अनुपम है, अनेरी है। कबीर जैसा फक्कड़ जब व्यवसाय करता है, तो वहां भी फक्कड़पन ही है और इस फक्कड़ता में उसने जिस जीवन-रस और जीवन-सौंदर्य का पान किया, वह धन-बहुल अमीर नहीं कर सकता। गोरा संत था, मिट्टी के घड़े बनाता था, रैदास जूतों की सिलाई करते थे, कबीर संत रहे मगर कपड़े बुनने का काम करते रहे । कपड़े बुनने का कार्य अगर आत्मलीन मन के साथ हो जाए, तो वह बुनना भी राम का ध्यान, अन्तर का गंगा-स्नान और स्वयं की निर्लिप्तता का सूत्र बन जाता है। मैं तो कहूँगा तुम झाडू भी लगाओ तो वह भी ध्यान बन जाए। बिल्कुल एकाग्रता से शांत चित्त हो झाडू लगाओ । देखो, कितने रूप में ध्यान घटित हो जाएगा। पहला ध्यान अहिंसा का कि कोई जीव या चींटी न मर जाए, दूसरा ध्यान करुणा का कि आए हुए जीवों को उठाकर किनारे कर दूं तीसरा ध्यान कर्मयोग का हो रहा है कि अपने समय का उपयोग कर रहे हो और चौथा ध्यान स्वयं का हो रहा है कि अगर मन में किसी प्रकार के अभिमान या अहंकार की ग्रंथि है तो वह नीचे गिर जाएगी। जीवन की हर गतिविधि ध्यानपूर्वक सम्पादित होनी चाहिए,बहुत ही सुलीन और सम्यक् मन के साथ। मन को सार्थक दिशा देने के लिए, मनोविजय के लिए हम कुछ छोटे-छोटे सूत्र लें। ध्यान रखें अपने आपको वही व्यक्ति जीत सकता है, जो अपने मन पर विजय प्राप्त कर लेता है या जो अपने मन से मुक्त हो जाता है। पहली बात, मन का सम्बन्ध इन्द्रियों से है और इन्द्रियों का सम्बन्ध विषयों से । हमारी ओर से जब भी किसी विषय का उपयोग हो, तो वह कभी भी हमारी अन्ध Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003863
Book TitleDhyan Sadhna aur Siddhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2003
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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