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________________ ध्यानःसाधना और सिद्धि हुआ है। धर्म और ध्यान इन्सान को भीतर की यात्रा और भीतर का वह जगत प्रदान करता है, जहाँ पहुँचकर या वहाँ रहकर उसका जीवन प्रकृति और परमात्मा का पुरस्कार बन जाता है । हमारी स्वयं से पहचान खंडित हुई है, स्वयं से संबंध विच्छिन्न हुआ है। जिनके बीच हम रह रहे हैं, वहाँ की मानवता भी खंडित हुई है । मानवता का संप्रदायीकरण और जातिकरण हो गया है । ब्राह्मण और शूद्र में मानव-जाति बंट गई है । मजहब के नाम पर विखंडन हुआ है, परमात्मा का विभाजन हुआ है । मनुष्य के नाम पर मनुष्यता ही एक नहीं है, तो एक परमात्मा कहाँ से होगा। अब तो उसके पास जीवन के वास्तविक वैभव को उपलब्ध करने के लिए, जीवन के स्थायी आनन्द को पाने के लिए न रास्ते बचे हैं, न पगडंडी। उसे कोई रास्ता नहीं सूझ रहा। वह जी रहा है, बिना दिशा का जीवन जी रहा है। यदि मनुष्य ने धर्म को अपनाया भी तो वह ज्ञान और विज्ञान-सापेक्ष नहीं हुआ, अन्तरदृष्टि और जीवन-सापेक्ष नहीं हुआ। उसका धर्म महज क्रिया-सापेक्ष हो गया। धर्म के क्रिया-सापेक्ष हो जाने से मनुष्य अपने मूल उद्देश्य से भटक गया। वह मन की बीमारियों को न जान पाया, जो जीवन में दुख और तनाव का कारण बनती हैं । धर्म और धर्मशास्त्र कहते हैं काम छोड़ो, राग छोड़ो,क्रोध छोड़ो, मोह छोड़ो । मनोविज्ञान भी आवेग और उत्तेजना छोड़ने की सलाह देता है । जीवन का विज्ञान भी शरीर की दूषित ग्रंथियों के प्रति निग्रंथ होने की प्रेरणा देता है । यह सब कहना अत्यंत सरल है, पर व्यवहार में देखते हैं तो पाते हैं कि शायद ही कोई इसे छोड़ पाया हो । प्रतिवर्ष आयोजित होने वाले हजारों सत्संग शायद ही किसी को सच्ची राह प्रदान कर पाते हों । दो घंटे के लिए मरघटी वैराग्य, क्षणभंगुर चिंतन की स्थिति बनती है । वापस, वैसे ही हो जाते है, जैसे थे। मक्का-मदीना से न लौटे, तब तक तो हाजी होने का बोध रहा, फिर वैसा ही, जैसा पाजी पहले था। ओह, मनुष्य स्वयं से वंचित हो गया। हम व्रत और नियम लेकर कुछ दिनों तक ब्रह्मचर्य का पालन कर सकते हैं, लेकिन उससे ब्रह्मचारी नहीं हो पाएँगे, क्योंकि मन की चंचलता और कलुषता तो समाप्त नहीं हुई । हमारी जो मूल बीमारी है, उसकी जड़ों तक नहीं पहुँचेंगे, तो ये व्रत-नियम जीवन भर लेते रहेंगे, पर न तो चित्त में निर्मलता घटित होगी, न ही अंतर्-आत्मा का आनन्द और जीवन का सुख-सौख्य मिलेगा और न चेतना महाचेतना की ओर बढ़ पाएगी। जब भी मनुष्य ने काया को देखा, उसे लहू और मांस ही दिखाई दिया। शायद Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003863
Book TitleDhyan Sadhna aur Siddhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2003
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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