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________________ मन को मिले सार्थक दिशा २९ ही कभी किसी को भीतर का मंदिर, उसमें से उठती सुगंधित बयार नजर आई हो। मनुष्य को शायद ही भीतर से आने वाली अजान की आवाज या कोई आयत सुनाई दी हो । ओह, धर्म खूब किया, पर ध्यान हाथ में न आया। मंदिर भी गए, पर परमात्मा से भेंट न हुई । जब भी मन ने भगवान को चाहा, वह बाहर ही ढूँढने गया, बाहर ही परमात्मा के दर्शन किए। एक बात तय है कि उच्छंखल मन के कोई भी रास्ते ईश्वर तक नहीं जाते । मन के रास्ते तो संसार के प्रपंच की ओर ही ले जाते हैं। मन ही तो हमें संसार की उधेड़बन देता है । मन ही तो मनुष्य की समस्या है। कुदरत ने जीवन तो वरदान के रूप में दिया है । आँख हो तो रात के अंधेरे में भी सूरज दिखाई देता है, अन्यथा सूरज तो रोज-ब-रोज निकलता है और हर साँझ यतीम हो जाता है। अगर मन में सूरज के प्रति भक्ति होगी, तो प्रणाम भी कर लोगे और फिर उसके तेज और धूप से बचने की कोशिश करोगे । सारा खेल आँख और मन का है। ___ मैं रात को आकाश में टिमटिमाते हुए तारों को देखता हूँ, देखता ही चला जाता हूँ, एकाग्रचित्त । और पाता हूँ कि एक ही तारा रह गया और धीरे-धीरे वह भी लप्त हो जाता है, सिर्फ रोशनी ही रह जाती है। और यह रोशनी जो मद्धिम तारे से आई थी, बढ़ते-बढ़ते सूरज बन जाती है । सूर्य केवल नमन के लिए नहीं है, वह तो हमारे घर-आंगन में उतारने के लिए है । सूर्य तो हमारे अन्तर-जगत की उर्वरा धरती पर लाने के लिए है, जहाँ अन्तर-शक्ति का बीज सुषुप्त है । वह अंकुरित होने को आकुल है, फूल खिलने को आतुर है। कहते हैं :आदि शक्ति ने संसार का सृजन किया । उसने देवताओं की उत्पत्ति की और धरती पर भेजकर कहा कि जहाँ तुम्हें आनन्द हो, वहाँ निवास करो । देवताओं ने परी धरती का भ्रमण किया, लेकिन रहने के लिए उपयुक्त स्थान न मिला । देवता आदि शक्ति के पास पहुँचे और कहा कि धरती पर हमें बेहतर समुचित जगह नहीं मिली । यह देख आदिशक्ति ने जमीन के इंसान की ओर इशारा करके कहा कि देखो उस इंसान को और उसके भीतर अपनी जगह बनाओ। देवता वापस धरा पर आए और मनुष्य में अन्तर्निहित हो गए। सूर्य उतरा और मनुष्य की आँखों को उसने अपना निवास बनाया । वायु देवता ने मनुष्य की साँसों में, उसके प्राणों में अपना घर बनाया। बृहस्पति ने मानव के मस्तिष्क को अपने उपयुक्त पाया । अग्नि ने मनुष्य के नाभि-प्रदेश से लेकर मुख तक अपना डेरा जमाया । चन्द्रमा ने अपनी शीतलता के मुताबिक मनुष्य के हृदय को अपना मंदिर बना लिया। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003863
Book TitleDhyan Sadhna aur Siddhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2003
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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