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अपना जीवन धन्य करना चाहता था, सार्थक करना चाहता था। पिता की ओर से मृत्यु को दान में दिए जाने से वह यमराज के सम्मुख उपस्थित हुआ था।
अभी तक तो हम इतना भली-भाँति समझ चुके हैं कि सशरीर यमलोक पहुँचे नचिकेता का यमराज ने परंपरा के अनुसार स्वागत-सत्कार किया। यमराज ऐसा करके स्वयं अपना कल्याण चाहते थे। कुछ भी करके, ब्राह्मण को प्रसन्न करना वे आवश्यक समझते थे। उन्होंने भी नचिकेता से अपने लिए आशीर्वाद माँगा होगा। सत्पुरुषों का आशीर्वाद सभी को मिलना चाहिए। जो लोग ब्रह्म-तत्त्व की उपासना में लगे रहते हैं, ऐसे लोगों का आशीर्वाद फलदायी होता है।।
यमराज अपनी ओर से नचिकेता को प्रसन्न करने के लिए कहते हैं, 'आप मेरे इंतज़ार में तीन दिन और तीन रात्रि भूखे-प्यासे यमलोक के द्वार पर खड़े रहे, इसके बदले मैं आपको तीन वरदान देने को प्रतिबद्ध हूँ।' नचिकेता वहाँ कोई वरदान लेने नहीं गए थे। पिता द्वारा मृत्यु को दान में दिए जाने के कारण नचिकेता सशरीर धरती से यमलोक की तरफ चले थे, तो उनके मन में रहा होगा कि मेरा यमलोक तक जाना किसी-न-किसी हेतु की वजह से है। यमलोक आना मेरे भले के लिए ही होगा। जो कुछ भी होता है, अच्छे के लिए ही होता है।
हर काम के पीछे प्रकृति की कोई-न-कोई व्यवस्था काम करती है। पिता उन्हें यमलोक न भेजते, तो क्या कठोपनिषद् जैसे आध्यात्मिक ग्रंथ का निर्माण हो सकता था? पृथ्वीलोक से यमलोक तक गए एक मानव का यमराज से वैसा आध्यात्मिक संवाद हो सकता था, जैसा नचिकेता से हुआ? हर काम का कोई-न-कोई हेतु अवश्य होता है। प्रकृति अपनी व्यवस्था बैठाती है।
यमराज ने नचिकेता को तीन वर देने चाहे। नचिकेता ने विचार करने के बाद यमराज से कहा, 'यदि आप मुझे कुछ देना चाहते हैं, तो पहला वरदान यही दें कि जब आप मुझे पृथ्वीलोक पर लौटाएँ तो मेरे पिता, जो मेरे द्वारा परामर्श दिए जाने पर मुझ पर क्रोधित और खिन्न होकर, उद्विग्न हो गए थे, वे मुझ पर फिर से प्रसन्न हो जाएँ। पहले की भाँति प्रेम करने लगें। वरदान के रूप में किसी संतान को परम सत्ता से कुछ मिल रहा हो, तो तय है कि वह ऐसा ही वरदान चाहेगी कि उसके माता-पिता उससे प्रसन्न रहें।'
नचिकेता जानते थे कि पिता अपनी संतान का कभी बुरा नहीं चाहते। आवेश में आकर संतान को मृत्यु को दान में नहीं दे सकते, लेकिन उद्दालक ने ऐसा किया, तो उसके पीछे कुछ-न-कुछ निहित अर्थ रहा होगा। इसमें भी नियति की कोई-न-कोई व्यवस्था रही होगी। इसीलिए तो उद्दालक ऐसा कर बैठे थे। वे अपने प्रिय और सर्वश्रेष्ठ पुत्र को मृत्यु को दान में दे बैठे। हालांकि बाद में संभव है, उन्हें इसका प्रायश्चित भी
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