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जीवन तो एक वरदान है। कृष्ण की बाँसुरी की तरह सरसाता हुआ उपवन है। जीवन का पल-पल आनन्द लेने की अगर आदत डाल लो, तो जीवन से बढ़कर न कोई स्वर्ग है, न कोई वैकुण्ठ है। सच्चाई तो यह है कि जीवन ही भगवान है और जीवन ही ब्रह्म-धाम । जीवन उत्साह से भरा हो, तो जीवन को जीने का मजा ही कुछ और है। जीवन को ऐसे जीओ जैसे सागर में लहरें उठती हैं, मंदिर में दीप जलता है, रात में चाँदनी महकती है। लोग मंदिर जाते हैं; मैं तो कहूँगा आप अपने जीवन को ही मंदिर बना लो। अपने बच्चे को ही भगवान का बाल रूप समझ लो, अपने सामने आने वाले हर रूप में प्रभु की मूरत देख लो, तो आपको प्रभु की पूजा या इबादत के लिए किसी मंदिर-मस्जिद या गिरजाघर जाने की ज़रूरत ही न पड़े। तुम जहाँ हो, वहीं मंदिर है।
जीवन कोई एकांत में बैठकर, मायूस होकर, चिंता में पड़कर बिताने के लिए नहीं हुआ करता। जीवन जीने के लिए है। मरना कोई उपलब्धि की बात थोड़े ही है। सारा सार तो जीने में है। जीवन को हर हाल में उत्साह,उमंग और ऊर्जा के साथ जीना - यही तो जीवन की सबसे बड़ी तपस्या है । मैं तो कहूँगा, आप अपने जीवन को ही अपना तपोवन बना लें और हर हाल में जीवन को धन्य और सार्थक करने की पहल करते रहें। आगे तो जैसी प्रभुइच्छा होगी, वही काम आएगी।
__ हम हर रोज जीवन का मूल्यांकन करते रहें। हर दिन, हर माह, हर साल। मूल्यांकन नियमित करते रहना चाहिए। मूल्यांकन से ही हम परिणाम तक पहुँच सकते हैं। दुनिया की चाहे कोई सरकार हो या पार्टी, अगर वे भी अपने कार्य-कलाप का, हार-जीत का मूल्यांकन करते रहेंगे, तो उनमें भी सदा सुधरने की, नया कुछ करने की संभावना बनी रहेगी। यदि आप कोई फैक्ट्री भी चलाते हैं, तो मैं तो कहूँगा, आप अपने हर रोज के उत्पादन का भी मूल्यांकन करते रहें? मूल्यांकन से ही स्तर में सुधार आता है। मैं स्वयं भी अपना, अपने जीवन का, अपने रिश्तों का, अपने कार्य-कलापों का, अपने जीवन में घटित होने वाली घटनाओं का मूल्यांकन करता रहता हूँ। जीवन को कोई बाँगे की तरह थोड़े ही जीना होता है। जीवन को जागरूकता से जीओ। बुद्ध बनकर नहीं, बुद्ध बनकर जीओ। हर व्यक्ति यह मूल्यांकन करे कि आज मैंने दिनभर क्या किया? जो कुछ भी किया, उसमें कितना सार्थक था और कितना निरर्थक? सुबह हुई, शाम हुई, रात आ गई। सुबह उठा। नित्यकर्म किया। भोजन किया। व्यापार किया। शाम हुई, घर आया, खाना खाया, सो गया। दिनभर में जो कुछ किया, उसका निष्कर्ष क्या रहा, इसका मूल्यांकन होना ही चाहिए। जीवन को सार्थक बनाना मनुष्य के ही हाथ में हुआ करता है। हमारे प्रत्येक हानि-लाभ के, यश-अपयश के, सफलताविफलता के जवाबदेह आखिर हम स्वयं ही हैं। नचिकेता यमलोक पहुँचा था, तो इसके निहित अर्थ थे। पिता के आदेश की पालना, उसके लिए आवश्यक थी। वह स्वयं
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