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द्रोणाचार्य अपने मित्र को कहते हैं कि मैं यहाँ का राजा हूँ, पर मैं अपना यह राज्य पुनः तुझे देता हूँ। वे उस जीते हुए राज्य में से केवल एक गाय लेते हैं और इस तरह अपनी प्रतिज्ञा पूरी करते हैं । द्रोणाचार्य संतोषी थे, और संतोष ही ब्राह्मण की सबसे बड़ी पूँजी हुआ करती है ।
यज्ञशाला से ब्राह्मण दान लेकर जाने लगे, तो नचिकेता के मन में श्रद्धा का आवेश उमड़ने लगा और वह उसी श्रद्धा से आपूरित होकर नाचने लगा । जैसे सावन के बादलों को देखकर मोर नाचने लगता है और उसे देख लोगों का मन प्रफुल्लित हो उठता है, उसी तरह श्रद्धा उमड़ती है तो नास्तिक के भीतर भी कहीं आस्तिकता जन्म ले लेती है । आपने देखा होगा, कई बार दीक्षा - समारोह में लोग इतने भावुक हो जाते हैं कि उनके भीतर भी वैराग - भाव जन्म लेने लगता है । तब वैरागी तो नाचता है और लोगों की आँखों में आँसू होते हैं । यह सब त्याग की महिमा है ।
मंदिरों की प्रतिष्ठा के दौरान के दृश्य भी कुछ ऐसे ही होते हैं। लोग यूँ तो पैसे खर्च करने में कंजूसी करते हैं लेकिन प्रतिष्ठा के दौरान लोग एक-एक चढ़ावे के लिए बड़ी-से-बड़ी बोली लगाने लगते हैं। यह क्या है ? भावना और श्रद्धा का ही तो विस्तार है। श्रद्धा अर्थात् भावों का उद्वेग । व्यक्ति के जीवन में दो ही तरह से त्याग की भावना आती है। या तो वह श्रद्धा से सराबोर हो जाता है या फिर उसे जीवन की नश्वरता का भान हो जाता है । इसी से प्रेरित होकर कोई दान करता है, कोई मंदिर, अस्पताल, सराय बनाता है । कोई यज्ञ का आयोजन करता है ।
मैं प्रेम-मार्ग का पथिक हूँ, इसलिए श्रद्धा को महत्त्व देता हूँ । मानव ऐसा प्राणी है, जो पत्थर में भी भगवान स्थापित कर देता है । पत्थर तो पत्थर ही रहेगा लेकिन जिसने मान लिया, उसके लिए हर जगह भगवान प्रकट हो जाते हैं । इंसान अरिहंत के नाम पर बनी मूर्ति को इसीलिए पूजने लगता है क्योंकि उसने उस पत्थर में अरिहंत को स्थापित कर लिया। जहाँ प्रेम है, वहाँ श्रद्धा है। श्रद्धा का जन्म दिल में होता है। श्रद्धा का जन्म होते ही हमारे हाथ देने की मुद्रा में आ जाते हैं, भले ही वह पैसा हो या प्रेम । यह श्रद्धा ही तो है जिसके कारण हमारे यहाँ रोजाना मंदिरों में पूजा के लिए हज़ारों किलो घी दीपक जलाने में काम लिया जाता है। आदमी घर की रसोई में रोटी पर घी लगाने में कंजूसी भले ही कर ले, लेकिन मंदिर के दीपक के लिए हर तरह की आहुति देने को तैयार हो जाता है ।
ऐसे में नचिकेता के मन में श्रद्धा के भाव उमड़े और वह नाचने लगा, तो इसमें आश्चर्य कैसा ! नचिकेता ने देखा कि उनके पिता ब्राह्मणों को गायें दे रहे हैं,
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