SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 33
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जाना जाए, तो उस शिष्य का शिष्यत्व धन्य है। यह उसके गुरु-तत्त्व की ही मान्यता है। यज्ञ-समाप्ति पर ब्राह्मण दक्षिणा के रूप में गायें लेकर वहाँ से जाने लगे थे। ऐसे में नचिकेता का नाचना कोई गंभीर संकेत कर रहा था। ब्राह्मणों ने तो ध्यान नहीं दिया; उन्हें जो मिला, उसे सहर्ष स्वीकार किया। लेकिन नचिकेता बूढीमरियल गायें दान में दी जाती देख शंका में पड़ गया। कठोपनिषद् बताता है कि नचिकेता ने तब कहा, 'हे पिताश्री!' जो जल पी चुकी हैं, जिसका घास खाना समाप्त हो चुका है, जिनका दूध भी दुह लिया गया है, जिनकी इन्द्रियाँ नष्ट हो चुकी हैं, उन गौओं का दान करने से उनका दाता उन लोकों को प्राप्त होता है जो सुखों से शून्य हैं। ऐसे दान से भला किसे स्वर्ग मिला है?' नचिकेता भले ही बालक था, लेकिन उसने शास्त्रों का अध्ययन किया था। वह जानता था कि इस तरह की गायों का दान उनके पिता को स्वर्ग-प्राप्ति में मदद नहीं कर सकता। ऐसा करके पिताश्री नरक के ही भागी होंगे। इसलिए पिता को सावधान करने की दृष्टि से नचिकेता आवेश में आए और नृत्य कर उनका ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने का प्रयास किया। ब्राह्मण तो दान पाकर उसी में संतुष्ट हो जाता है जो उसकी झोली में आ जाता है। उनके भीतर ज़्यादा तृष्णा नहीं होती। ब्राह्मण संतोषी जीव होते हैं। जो मिल गया, उसमें राजी रहते हैं। कहते हैं, गुरु द्रोणाचार्य की पत्नी कृपी ने उनसे कहा कि वे पुत्र अश्वत्थामा के लिए दूध की व्यवस्था करें। उन दिनों उनके पास कोई गाय न थी। उन्हें याद आया कि उनका सखा एक राज्य का राजा बन गया है। उसने बचपन में उनसे कहा था कि जब मैं राजा बनूँगा, तो मेरा आधा राज्य तेरा होगा। द्रोणाचार्य उसके पास गए और बचपन की बात याद दिलाई। मित्र पहले तो हँसा और फिर कहने लगा, 'तू आधे राज्य की बात करता है, मैं तो एक गाय भी न दूंगा।' द्रोणाचार्य मायूस हुए और कृपाचार्य के पास पहुँचे। उस दौरान पांडव और कौरव वहाँ खेल रहे थे। खेल के दौरान उनकी गेंद किसी कुएँ में जा गिरी। द्रोणाचार्य ने गेंद पर तिनका-दर-तिनका मार कर गेंद बाहर निकाल दी। इसके बाद द्रोणाचार्य कौरवों और पांडवों को धनुर्विद्या सिखाने लगे। विद्या पूरी होने पर वे अपने शिष्यों से गुरु-दक्षिणा के तौर पर अपने उसी मित्र का राज्य जीतने को कहते हैं। अर्जुन और अन्य पांडव उस राजा को द्रोणाचार्य के चरणों में लाकर डाल देते हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003862
Book TitleMrutyu Se Mulakat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherPustak Mahal
Publication Year2011
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy