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________________ पहुँचा, वह भी पानी है। हम इस संपूर्ण पानी की धारा को पानी इसलिए कहते हैं क्योंकि इसमें अखण्डता बनी हुई है। __जो जीवन हमारी आँखों के सामने है, वह तो जीवन है ही, लेकिन जो जीवन हम बिता चुके हैं, उसे भी जीवन की संज्ञा देंगे और आने वाला जीवन जो हमारे प्रारब्ध या तकदीर में लिखा है, वह भी जीवन है; अर्थात् जीवन एक धारा है और यह धारा जन्म-मृत्यु के दो द्वारों से गुजरने के बावजूद धारा ही बनी रहती है। संसार है इक नदिया, सुख-दुख दो किनारे हैं। ना जाने कहाँ जाएँ, हम बहते धारे हैं । अज्ञानी कहते हैं - अमुक व्यक्ति जन्मा और अमुक व्यक्ति मरा। ज्ञानी लोग कहते हैं - न कोई जन्मा, न कोई मरा। नेवर बोर्न, नेवर डाइड। न यहाँ जन्म है, न यहाँ मृत्यु है। हम सब सहयात्री की तरह इस धरती पर आए हैं। साथ-साथ जी रहे हैं। अपनी-अपनी रखवाली कर रहे हैं। यात्री बिछुड़ जाते हैं। बिछुड़ना हमारी भाषा में वियोग कहलाता है, मृत्यु कहलाता है। लेकिन तुम नहीं तो तुम्हारा भाई सही, कोई-न-कोई इस यात्रा में फिर जुड़ जाता है और नदिया की धारा की तरह जीवन बहता चला जाता है। ज्ञानी लोग धैर्यपूर्वक आत्म-चिंतन करते हैं। वे प्रयोग करते रहते हैं। वे यह भी जानने का प्रयत्न करते रहते हैं कि वे कौन हैं, उनकी शुरुआत माता-पिता से ही हुई या इससे भी पहले उनकी कोई धारा रही है। उनका मूल उत्स क्या है ? वे गंगा हैं या गंगोत्री? ज्यों-ज्यों कोई इंसान अपने आप से जुड़ता है, चिंतन-मनन करता है, उसे अपने भीतर अपना मार्ग मिलता चला जाता है। और तब वह समझने लगता है कि हम सब यहाँ निमित्त हैं। निमित्तमूलक जीवन जीते हैं। अनुकूल निमित्त हमें खुशियाँ देता है और प्रतिकूल निमित्त हमें उद्वेग, खिन्नता, पीड़ा दिया करता है। लेकिन जिसने जीवन के मर्म को समझ लिया, जीवन की गहराइयों को समझने का प्रयत्न किया, उसके लिए न तो अनुकूलता खुशी का निमित्त बनती है और न ही प्रतिकूलता उद्वेग और खिन्नता का आधार । दोनों परिस्थितियों में वे सहज रहते हैं। अनुकूलता और प्रतिकूलता के दोनों किनारों से निरपेक्ष और अप्रभावित रहकर जीना जीवन की सच्ची आत्म-विजय है। ___ एक वृद्ध संत थे। उन्हें एक बार झूठे इलज़ाम में कोड़े लगाने की सजा दी गई। उन्हें कोड़े लगाए जा रहे थे। वे शांत भाव से मार सहन कर रहे थे। बीस कोड़े का दंड था। वृद्ध महात्मा कोड़े खाकर निकल पड़े। राह में किसी ने पूछा, 25 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003862
Book TitleMrutyu Se Mulakat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherPustak Mahal
Publication Year2011
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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