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________________ अनासक्ति की तरफ बढ़ते चले जाएँगे। जागरूकता होगी, तो नमक कम होने पर भी खाना खा लोगे। कभी नमक बिलकुल नहीं होगा, तब भी शिकायत नहीं करोगे। अनासक्ति की शुरुआत यूँ ही हुआ करती है। अन्यथा कब तक क्रोध करते रहोगे? हम अपनी इस तरह की व्यक्तिगत कमजोरियों पर विजय पाते चले जाएँगे, तो आत्म-चिंतन में मुक्ति की राह मिल जाएगी। राजा भर्तृहरि की प्रसिद्ध कहानी है, राजा को एक संत ने अमृत-फल लाकर दिया। उनकी मंशा थी कि राजा बहुत ही चरित्रवान और सुशासन करने वाले हैं; उनका जीवन अमर हो जाना चाहिए। राजा फल पाकर प्रसन्न हुए। कोई भी व्यक्ति जिसे सबसे ज़्यादा प्यार करता है, उसके लिए अपनी सबसे क़ीमती चीज़ देने को तैयार हो जाता है। राजा अपनी रानी को बहुत प्यार करते थे। उन्होंने वह अमृत-फल रानी को दे दिया। रानी अमृत-फल पाकर बहुत खुश हुई, लेकिन उसने उस फल को खाया नहीं। असल में रानी राज्य के सेनापति से बहुत प्यार करती थी। उसने वह फल सेनापति को दे दिया। रानी तो सेनापति को चाहती थी, लेकिन सेनापति की आसक्ति राज्य की सबसे सुन्दर वेश्या में थी। सेनापति वह फल लेकर वेश्या के पास गया और उसे प्यार से भेंट किया। वेश्या तो वेश्या ही थी। अमृत-फल देखकर उसे बोध हो गया। उसने विचार किया, अरे, मैं अधम तो इस योग्य कहाँ हूँ कि यह फल खाकर अमर होऊँ। अमर हो भी गई, तो यही दलदल-भरा जीवन जीना पड़ेगा। लेकिन इस राज्य के राजा भर्तृहरि बहुत ही अच्छे शासक हैं; उनका जीवन अमर होगा, तो राज्य को ही लाभ होगा, राज्य के हर आदमी का भला होगा। यह सोचकर वह अगले दिन राजदरबार पहुँची और सबके बीच उसने वह अमृत-फल राजा को भेंट किया। वहाँ सेनापति और रानी भी मौजूद थे। वे शर्म से गड़ गए और राजा भर्तृहरि को इस घटना से वैराग्य हो गया। पूरा घटनाक्रम सामने आया। राजा ने सोचा - अरे, मैं जिसे इतना प्यार करता था, वह सेनापति को चाहती है। रानी ने विचार किया, मैं जिस सेनापति को अपने पति से ज़्यादा चाहती हूँ, वह वेश्या को चाहता है। सेनापति ने विचार किया, अरे, मुझसे तो यह वेश्या भी ज़्यादा चरित्रवान् है । बस, एक साथ चार जनों के मन में वैराग्य जग गया। ज़रा चिंतन करें, हम अपने बुरे कर्मों से कब तक बचेंगे? ज़रा आत्म-तत्त्व के बारे में चिंतन करें । बुरा काम करते समय हमें उसकी बुराई का अहसास होगा तब ही हम पाप और पुण्य में अंतर कर पाएंगे। तब ही हम भलाई के मार्ग पर चल पाएँगे। इसलिए चिंतन करो – मैं कौन हूँ, क्या हूँ, कहाँ से आया हूँ? ये जो रिश्ते हैं, इनके बारे में सोचोगे तो पाओगे कि ये सब मिथ्या हैं । इस पृथ्वीलोक पर हम आए हैं तो यहाँ की व्यवस्था में जुड़ गए हैं इसलिए माँ, पत्नी, पिता, पुत्र के रिश्ते भी जुड़ गए हैं। यह तो अवश्यंभावी है। संयोग था इसलिए रिश्ते जुड़ गए। हम एक-दूसरे से बँध गए लेकिन इतना होने के 199 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003862
Book TitleMrutyu Se Mulakat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherPustak Mahal
Publication Year2011
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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