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________________ पहली सीढी है। जागरूकतापूर्वक जीएँगे, तो हम प्रत्येक तत्त्व को समझते चले जाएँगे। देह क्या है? शरीर क्या है? इंद्रियाँ क्या हैं ? मन के गुण-धर्म क्या हैं ? मन कब किस पर मोहित हो जाए, कब चिड़चिड़ा हो जाए, कहा नहीं जा सकता। जागरूकता से ही जीवन को समझ पाएँगे । संसारी कौन है ? जो मूर्छा में जीता है। संत कौन, जो सजगता से जीता है। सारे प्राणी सोते हैं, तब संत जगा करते हैं; आत्म-जागरूक होते हैं। आत्मवान् होने या आत्म-मुक्ति की राह पर बढ़ने का प्रथम और अंतिम रास्ता है जागरूकता। जागरूकतापूर्वक जीओ; लापरवाही बहुत हो चुकी, अब सम्भलो। हमें अपना व्यवहार बदलना होगा, शिष्टाचार को आचरण में उतारना होगा। अपना व्यवहार ही ऐसा रखो ताकि कोई आपका अपमान करने की हिम्मत न कर सके। निमित्त-प्रधान जीवन जीते हैं तो जब जैसा निमित्त बनेगा, हमारा आचरण वैसा ही हो जाएगा। सम्बन्धों को जोड़ो, निमित्तों को गौण करो। अपना हर कार्य जागरूकतापूर्वक सम्पादित करो।हो सकता है, किसी बात पर नाराज़ हो जाओ और मुँह से अपशब्द निकल जाएँ। इंसान हैं, तो गलती तो हो सकती है। गालियाँ भीतर हैं, इनसे मुक्त होना है; आसक्तियों से मुक्त होना है। मुक्त हो जाओ। दुर्गुण है तो कोई मुक्त नहीं हो पाता। जहाँ कमजोरी है, उस पर विजय पाने की कोशिश करो। विजय प्राप्त करने के लिए तपना पड़ता है। व्यापार करते हैं तो लाभ के लिए प्रयास करते हैं; लाभ होता भी है, लेकिन कभी नुकसान भी हो सकता है। कभी सफलता, कभी असफलता; ये जीवन के रंग हैं। जागरूकता ही जीवन का पहला मापदंड है। सोने, उठने, बैठने, भोजन करने सहित सभी कार्यों में जागरूकता ज़रूरी है। भोजन कर रहे हैं। जागरूकता नहीं रखेंगे, तो हो सकता है, जीभ दांतों के बीच आ जाए। जागरूकता से कार्य करना, आत्मवान् बनने का पहला चरण है और आत्म-चिंतन दूसरा चरण है। आत्म-तत्त्व हर जगह जुड़ता है, भले ही बात आत्म हत्या की हो या आत्म-सम्मान की। बैठकर चिंतन करो, जीवन के बारे में, जगत् के बारे में। देखो और समझो, आखिर क्या है जीवन? हमारा निर्माण माँ की कोख में होता है और अंत श्मशान में । अपनी तलाश में, खोज में हम गहराई में जाएँगे, तो धीरे-धीरे पता चलेगा कि आखिर हम हैं कौन? शुक्राणु की एक बूंद से हमारा निर्माण हुआ। उस बूंद में जीवन कहाँ से प्रवेश हुआ? तब हमें पता चलता है कि हमारी शुरुआत अपवित्र स्थान से होती है, अपवित्र कर्म से ही होती है। इसीलिए तो हम अपवित्र होते हैं। मनुष्य इसीलिए भोग-वासना में लिप्त हो जाता है। जो इन सारी सच्चाइयों को समझ लेता है, वह इनसे उपरत होने के बारे में सोचने लगता है और एक दिन इनसे उपरत हो जाता है। आत्म चिंतन करने वाला धैर्यपूर्वक समझेगा कि जन्म क्या है और मृत्यु क्या है? धीरे-धीरे उसके कदम 198 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003862
Book TitleMrutyu Se Mulakat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherPustak Mahal
Publication Year2011
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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