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नश्वर समझते हैं, बेहतर होगा कि एक बार उस नश्वरता को अपनी आँखों से गुज़रने दीजिए। गुज़रने से ही सत्य का बोध होता है।
महावीर से किसी ने पूछा, 'मिथ्यात्व क्या है ?' उन्होंने बताया, शरीर और आत्मा को एक मानना ही प्राणी मात्र का मिथ्यात्व है, यही अविद्या है। सम्यक्त्व क्या है ? जड़ को जड़ और चेतन को चेतना समझो, यह हंस-दृष्टि ही सम्यक्दृष्टि है। हम जब तक नश्वर तत्त्व को नहीं समझ पाएँगे, अनश्वरता तक नहीं पहुँच पाएँगे। नित्य को नहीं जानेंगे, तब तक अनित्य तक नहीं पहुँच पाएँगे। जो इंसान किसी को जन्मता या मरता देखकर नहीं जगता, वह जीवन में बदलाव की शुरुआत कैसे कर सकता है ? मृत्यु को नजदीक से देखने पर ही भीतर वैराग्य के भाव जागृत हो सकते हैं। अपने सामने से कोई लाश निकलती है, श्मशान में उसे जलाया जाता है, तो हमें लगता है कि एक दिन हमारा भी यही होना है। किसी साधक को एक रात श्मशान में जाकर बितानी चाहिए। जब तक श्मशान में बैठने का साहस नहीं कर पाएँगे, तब तक सिर्फ सभागारों में, कमरों में बैठकर आत्म-तत्त्व की साधना नहीं कर पाएँगे। तब तक उस अपरिवर्तनशील तत्त्व तक नहीं पहुँच पाएँगे; राजचन्द्र जगे, उनकी चेतना जगी। हमारी भी चिता जले, उससे पहले हमारे भीतर चिंतन के भाव पैदा हो जाने चाहिए। हमारी अर्थियाँ सजें, उससे पहले हमारी आस्था जग जानी चाहिए।
जीवन में मैंने जब भी किसी की शव-यात्रा निकलती देखी, किसी का शरीर पंचतत्त्व में विलीन होते देखा, सो मैंने अपने शरीर को जलते देखा, तब मैं देह से देहातीत हो गया।
अब कबीरा क्या सीएगा, जल चुकी चादर पुरानी। मिट्टी का है मोह कैसा, ज्योति ज्योति में समानी॥ तन का पिंजरा रह गया है, उड़ गया पिंजरे का पंछी।
क्या करें इस पिंजरे का, चेतना समझो सयानी॥ घर कहाँ है, धर्मशाला, हम रहे मेहमान दो दिन। हम मुसाफ़िर हों भले ही, पर अमर मेरी कहानी॥ जल रही धू-धू चिता, और मिट्टी मिट्टी में समानी।
चन्द्र आओ हम चलें अब, मुक्ति की मंज़िल सुहानी॥ हम सब यहाँ मेहमान की तरह रहने आए हैं। एक बात तो तय है कि नश्वरता का बोध प्राप्त किए बगैर हम अनश्वरता को उपलब्ध नहीं कर सकते। लोग मुझसे पूछते हैं - मैं कौन हूँ? यह पागलपन है कि हम गुरुजनों के पास जाकर उनसे पूछे कि हम कौन हैं ? होना तो यह चाहिए कि जो प्रश्न हम गुरुजनों से पूछ रहे हैं, क्यों न वही प्रश्न हम
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