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________________ लेता है। गुरु और शिष्य होना एक बहुत बड़ा दायित्व है। पिता और पुत्र होना, सास और बहू होना ख़ुद ही बहुत बड़ा दायित्व है। गुरु और शिष्य का संबंध भी बड़े दायित्व लिये होता है। या तो किसी व्यक्ति को शिष्य बनाना ही नहीं चाहिए, पर किसी को शिष्य बना लिया जाता है, तो गुरु केवल अपना ही भला न करता रहे, अपने साथ-साथ शिष्य की भलाई का जो दायित्व उसने लिया है, उसे भी निभाए। गुरु और शिष्य, दोनों ही महत्त्वपूर्ण लोग हैं। बिना शिष्य गुरु का ज्ञान ढक्कन लगे कलश में पड़े अमृत के समान है। किसी के पास कुछ भी क्यों न हो, पर यदि वह दुनिया के सामने उजागर नहीं होता है तो क्या काम का? दुनिया तुम्हें लाट साहब तभी तो मानेगी जब तुम अपनी लाट साहिबी उजागर करोगे। जरा सोचो, अगर महावीर अपने कैवल्य की रोशनी को दुनिया के सामने प्रकट न करते, बुद्ध अपने संबोधि के प्रकाश से संसार को प्रकाशित न करते, तो ऐसा कैवल्य और ऐसी संबोधि उन्हीं को मुबारक रहती। गुरु वही हो सकता है जो शिष्य के साथ फिर से ज्ञान के पथ पर चलने को तैयार हो। गुरु को शिष्य के साथ चलना पड़ता है ताकि शिष्य भी गुरु के साथ चल सके। गुरु में पात्रता चाहिए तो शिष्य में भरोसा चाहिए। शिष्य का मतलब है श्रद्धा, शिष्य का मतलब है अध्यात्म का उन्माद, आध्यात्मिक ऊँचाइयों को पाने की अद्भुत तमन्ना कि जिसके लिए वह कुर्बान कर देता है अपनी हर अहमियत को, हर इच्छा को, हर रिश्ते-नातों को। इसलिए कठोपनिषद् में गुरु कहते हैं कि हे प्रभु, हम दोनों की साथ-साथ रक्षा हो। मेरा भी रक्षण हो और मेरे शिष्य का भी रक्षण हो। हम दोनों का साथ-साथ पालन करें। मेरा भी पालन हो और जिसने मेरे लिए जीवन समर्पित कर दिया है, उसका भी पालन हो। हम ईश्वर के सामने बालक बनकर जाते हैं, अपनी रक्षा की प्रार्थना करते हैं। एक पुत्र अपने पिता के साथ इसी भावना से रहता है कि पिता उसकी रक्षा करेंगे। बहू अपने सास-ससुर के पास इसी भावना से रहती है कि ऐसा करने से उसका रक्षण होगा। पति ग़लत निकल जाए, उसे छोड़कर चला जाए तो उसका पालन-पोषण तो सास-ससुर ही करेंगे। हर कोई एक-दूसरे का सहयोग करता है, दुनिया इसी नैसर्गिक सिद्धांत पर चला करती है। कभी मैं आपके लिए उपयोगी बन जाऊँ, कभी आप मेरे लिए उपयोगी बन जाएँ। यह कहना गलत है कि दुनिया किसी एक व्यक्ति के कारण चलती है। हकीकत तो यह है कि दुनिया हम सभी के कारण चलती है। तुलसीदास कहते हैं, 'तुलसी या संसार में भांति-भांति के लोग, सबसे मिलकर चालिए, नदी-नाव संयोग।' यहाँ हर चीज़ एक-दूसरे से 17 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003862
Book TitleMrutyu Se Mulakat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherPustak Mahal
Publication Year2011
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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