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________________ इस एक छोटे से शब्द में ईश्वर का आह्वान छिपा है । ईश्वर को नमन करने का यह सीधा - सरल शब्द है ॐ । हम लोग अपने व्यावहारिक जीवन में भी ॐ नमः का स्मरण कर सकते हैं। किसी भी कार्य का शुभारंभ करना है, तो ॐ के उच्चारण से करें। नई कापी, नई डायरी, नए बहीखाते में, नए परीण्डे में सबसे पहले ॐ लिखें। ॐ लिख दिया, तो इसमें एक तरह से गणेशाय नमः, लक्ष्म्यै नमः, सरस्वत्यै नमः, कुल-देवतायै नमः ये सभी ॐ में समाहित हो जाते हैं । दुनिया की कोई ताक़त ब्रह्म से अलग नहीं है । ब्रह्म को उपनिषद् में ॐ कहा गया है। ॐ ही ब्रह्म है। गीता कहती है कि 'ॐ इति एकाक्षरं ब्रह्मः । ॐ ऐसा अकेला अक्षर है, जिसका क्षय नहीं हो सकता । इसीलिए पतंजलि कहते हैं, ‘तस्य वाचकः प्रणवः' । ईश्वर का वाचक अगर कोई है, तो वह है प्रणव । प्रणव का अर्थ होता है ॐ । सिक्ख धर्म में ॐ को इतना महत्त्व दिया गया है कि 'एक ॐ कार सतनाम' उनके धर्म का प्रतीक ही बन गया । सत्य क्या है, ॐ ही तो है । कहते हैं, जब सृष्टि का जन्म हुआ, तो सबसे पहली ध्वनि जो पैदा हुई, वह ॐ की थी। हम भी अपने साथ यह व्यावहारिक चरण जोड़ने का प्रयत्न करें कि जब भी हम किसी मंगल कार्य को प्रारंभ करें, तो सबसे पहले ॐ या ॐ नमः का उच्चारण करें । संत लोग जब मंत्र का ध्यान करते हैं, तो इसमें मुख्य रूप से ॐ की ही आराधना होती है । कोई यह न समझे क इस मंत्र की साधना करके हम किसी तंत्र की साधना कर रहे हैं । ॐ की साधना करके हम ब्रह्म-तत्त्व की ईश्वर की ही साधना करते हैं । कठोपनिषद् कहता है, 'हे ईश्वर, हम दोनों की साथ-साथ रक्षा करें। हम दोनों का साथ-साथ पालन करें। हम दोनों की पढ़ी विद्या तेजोमयी हो। हम परस्पर द्वेष न करें । , भारतीय संस्कृति और समस्त हिन्दू समाज में जब भी कोई साथ बैठकर विशिष्ट ज्ञान धारण करता है, भोजन ग्रहण करता है, तो इस शांति पाठ का उपयोग करते हैं। इसमें कहा गया है कि हम दोनों की साथ-साथ रक्षा करें। गुरु की महानता देखें, शास्त्र की रचना शुरू कर रहे हैं तो अपने साथ शिष्य की भी भलाई चाहते हैं । कठोपनिषद् का निर्माण करते हुए गुरु अपनी भलाई के साथ ही शिष्य का भी भला सोच रहे हैं । 'हम दोनों की साथ-साथ रक्षा हो ।' गुरु स्वार्थी नहीं हो सकता। गुरु और शिष्य, ये दुनिया में ऐसे पवित्र संबंध होते हैं जहाँ दोनों एक-दूसरे का भला चाहते हैं । शिष्य अपनी ओर से गुरु की सेवा का संकल्प लेता है। गुरु अपनी ओर से शिष्य की आध्यात्मिक समृद्धि का संकल्प 16 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003862
Book TitleMrutyu Se Mulakat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherPustak Mahal
Publication Year2011
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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