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________________ जुड़ी है। प्रत्येक वस्तु एक-दूसरे पर टिकी है। आपस का वैर-विरोध हटाइए। प्रेम-नदी के तट पर आइए। प्रेम-नदी के तट पर ही प्रभु का धाम है। कठोपनिषद् की शुरुआत में ही गुरु अपने शिष्य के साथ संवाद कर रहा है, ब्रह्म-विद्या और अध्यात्म के ज्ञान की परतें खोल रहा है। इसलिए वह प्रार्थना कर रहा है कि हे प्रभु, मेरे साथ मेरे शिष्य का भी भला करें। आप हम दोनों की साथ-साथ रक्षा करें, साथ-साथ पालन करें। इस संसार में एक ही शब्द महिमामंडित हो जाना चाहिए और वह है, साथ-साथ। परिवार में भी रहो साथसाथ, समाज में भी रहो साथ-साथ, धर्म में भी रहो साथ-साथ, साधना में भी रहो साथ-साथ। यदि पूरी दुनिया में यही एक नारा हो जाए, यही एक पैग़ाम हो जाए, यही एक धर्म हो जाए कि हम सब साथ-साथ हैं, तो दुनिया की आधी आपाधापियाँ ख़ुद ही ख़त्म हो जाएँ। मैं आपको ब्रह्म-विद्या की ओर गतिशील कर रहा हूँ तो इसका अर्थ यह नहीं है कि मैं केवल आपको उस ओर भेज रहा हूँ। मैं भी आपके साथ ही चल रहा हूँ। हम सब साथ-साथ हैं। साधना का पथ तो साथ-साथ चलने का पथ है। यह भीतर का नौका-विहार है। केवल मेरे हाथ में ही पतवार नहीं है, आपको भी पतवार थमा रहा हूँ। मुझे भी पतवार चलानी होगी, आपको भी पतवार चलानी होगी। हाँ, कहीं भूल हो जाएगी, तो सुधरवाता रहूँगा। कहीं थक जाओगे, तो अपने आंचल में विश्राम भी दे दूँगा। पर एक बात तय है कि पतवार तो हम सब लोगों को ही चलानी पड़ेगी। गुरु कहते हैं कि इस ब्रह्म-विद्या से केवल मुझे ही शक्ति की प्राप्ति न हो, वरन् मेरे प्रिय शिष्य को भी शक्ति की प्राप्ति हो। हम दोनों की पढ़ी हुई विद्या तेजोमयी हो, अर्थात् हमारा ज्ञान, हमारी विद्या तेजस्वी हो। ज्ञान वह नहीं है जो हमने रट लिया है। ज्ञान वह है जिसकी तेजस्विता हमें उपलब्ध हो गई है। ज़रा सोचें, सूर्य में अगर तेजस्विता न होती, तो क्या होता? सूर्य एक ठण्डा उल्कापिंड भर होता। सूर्य की ताक़त तो उसका तेज ही है। तेज ही तीर्थंकर की ताक़त है। तेज ही अवतार और पैगंबरों की शक्ति है। इसीलिए प्रार्थना की जाती है कि हम दोनों के द्वारा जो ज्ञान अर्जित किया गया है, वह ज्ञान तेजोमय हो। वह विद्या और आगे बढ़े। हम परस्पर द्वेष न करें। शिष्य और गुरु एक दूसरे के बीच खींचतान में न पड़ें। भला, जब आम सांसारिक प्राणियों के लिए राग-द्वेष और बैर करना वर्जित है, तो संन्यासी के लिए तो राग-द्वेष और बैर पूरी तरह वर्जित हैं ही। बैर और द्वेष की बात सोचना भी पाप 18 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003862
Book TitleMrutyu Se Mulakat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherPustak Mahal
Publication Year2011
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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