SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 178
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तड़पे बिना मर जाओ, अन्यथा तुम्हें चील-कौओं के आगे फिंकवा देता । दास ने कहा, मृत्यु तो मृत्यु ही है, चाहे वह एक क्षण की हो या तड़प-तड़प कर मरना पड़े । I इसलिए अशुभ और शुभ, दोनों से ही मुक्त होना होगा। पाप ही नहीं, पुण्य से भी उपरत होना होगा। नचिकेता जानना चाह रहे हैं कि वह क्या है जो धर्म से भी अलग है और अधर्म से भी। कार्य से भी मुक्त है और कारण से भी । कुछ हो रहा है तो कारण अवश्य ही रहा होगा। बिना कारण कोई बात नहीं हो सकती । चिड़िया उड़ सकती है तो इसकी कोई-न-कोई वजह अवश्य होगी। उड़ती चिड़िया को देखकर ही प्रश्न उठा था और राइट बंधुओं ने हवाई जहाज के आविष्कार की नींव रख दी। आज हम आकाश में चिड़िया की तरह उड़ सकते हैं, तो उन्हीं की बदौलत । इसलिए नचिकेता जानना चाहते हैं कि वह क्या है जो कल भी था, आज भी है और कल भी रहेगा। ऐसा शाश्वत वर्तमान कौन है ? ऐसा अपरिवर्तशील तत्त्व जो अतीत में था और आज भी है, जो कल भी रहेगा और जो इन तीनों समय से उपरत भी है। जो जन्म से पहले भी था, जन्म के साथ तो है ही, मरने के बाद भी रहेगा। शरीर जला दिया जाएगा तब भी रहने वाला है । जीसस चले गए, महावीर चले गए। उनके शरीर कहाँ हैं ? दादाजी चले गए, फिर दादाजी किसे कह रहे हो ? किसकी बरसी मनाते हो ? शरीर शांत हो जाता है, चैतन्य तत्त्व फिर भी रहता है । यह तत्त्व तो सर्वातीत है, सर्वकालिक है, सार्वभौम है । नचिकेता कह रहे हैं, 'हे यमराज, आप हर रहस्य के मर्मज्ञ हैं, इसलिए मुझे समझाइए कि वह कौन-सा तत्त्व है जो था, है और रहेगा ।' संसार का हर तत्त्व किसी-न-किसी आलंबन से जुड़ा है। कुछ भी अलग नहीं है। कहीं मेरी, तो कहीं आपकी उपयोगिता है । कहीं शरीर महत्त्वपूर्ण हो जाया करता है, तो कहीं आत्मा । शरीर तो अन्नधर्मा है, मरणधर्मा है, रोगधर्मा है। भोजन करना शरीर की ज़रूरत है । आत्मा भोजन नहीं करती। शरीर टिकाने के लिए भोजन करना पड़ता है। जीजीविषा न हो, तो भोजन करने की आवश्यकता ही न पड़े। I जीने की तमन्ना है, तृष्णा है, तभी तो शरीर का पोषण कर रहे हैं । शरीर के मर्म को समझ लें। शरीर को ढककर रखना, यह शरीर की अनिवार्यता है। लोक-लाज वश कपड़े पहनने पड़ते हैं । यह संसार की व्यवस्था है। शरीर के मर्म की तरह ही आत्मा के मर्म को भी समझ लें, तो बात बन जाए। जन्म लिया है, तो विवाह भी करना पड़ता है। पहले जमाने में तो ऋषि-मुनि भी विवाह करते थे, उनके संतानें होती थीं। शरीर की जरूरतों को पूरी करने के बावजूद ऋषि-मुनि शरीर और आत्मा के मर्म को समझते थे । वे तत्त्व-ज्ञान रखते थे कि शरीर के अपने गुण-धर्म होते हैं, आत्मा के अपने गुण-धर्म । वाणी बोल रही है लेकिन ऐसा भी संभव है कि कुछ बोला ही न गया हो और बहुत-कुछ सुन लिया गया हो। मन में विचार चल रहे हैं, इंद्रियाँ अपना कार्य कर रही Jain Education International 177 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003862
Book TitleMrutyu Se Mulakat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherPustak Mahal
Publication Year2011
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy