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________________ पास पड़ा एक कागज उठाया, उस पर जल्दबाजी में कुछ लिखा और पुड़िया में बाँध कर दे दिया। रानी खुश हो गई। घर जाकर उसका तावीज़ बनाया और पति के सिरहाने रख दिया। संयोग हुआ या उस तावीच का असर, राजा का मन बदल गया। वह रानी से अच्छे तरीके से पेश आने लगा। रानी के प्रति उसके मन में अनुराग भी जाग उठा। एक दिन राजा को पता चला कि उसके सिरहाने कोई तावीज पडा है। उन्होंने मनोविनोद करते हुए रानी से इसके बारे में पूछ ही लिया। रानी पहले तो घबराई, लेकिन राजा ने उसे अभयदान दे दिया, तब उसने सारी कहानी बताई। राजा जोर से हँसे और कहने लगे, जरा देखो तो सही इस तावीज़ में लिखा क्या है? तावीज़ को खोला गया। उसमें लिखा था, 'राजा-रानी दोऊ मिले, उसमें आनन्दघन को क्या?' मिल जाओ तो ठीक है और न मिल सको, तो भी ठीक, आनन्दघन को इससे कोई सरोकार नहीं। यह तो संयोग है कि राजा का मन बदल गया। तावीज़ से कुछ नहीं हुआ करता। बस, राजा का मन बदला तो इसका श्रेय आनन्दघन को मिल गया। जीवन का तत्त्व-ज्ञान यही है कि आपने परिवर्तनशील और अपरिवर्तनशील को जान लिया। रोज नहाते हैं, फिर गंदे हो जाते हैं। रोज खाते हैं, वह मिट्टी हो जाता है। इसका मर्म समझ में आना चाहिए। सहज रूप में इंसान ज़िन्दगी जीए। यमराज ने इसी परिवर्तनशील और अपरिवर्तनशील तत्त्व के बारे में नचिकेता से चर्चा की। नचिकेता यमराज के सम्मुख उपस्थित हुए । वे आत्मा का रहस्य जानने के अभिलाषी हैं । यमराज नचिकेता को आत्म-तत्त्व के बारे में विस्तार से समझा रहे हैं। यमराज कहते हैं, 'हे नचिकेता! हम सबके हृदय में वह आत्मदेव और आत्मतत्त्व रहा करता है। हमारा हृदय उस आत्म-तत्त्व का केन्द्र है। हमारे हृदय के गहरे गह्वर में वह आत्म-तत्त्व व्याप्त है। सूर्य की किरणों में प्रकाश है, लेकिन मूल स्रोत तो सूर्य ही है। किरणें उस स्रोत से निकलने वाला प्रभाव है। इसी प्रकार हमारे शरीर से भी रोशनी फैल रही है, लेकिन उसका मूल केन्द्र हमारा हृदय-स्थल ही है। भौतिक रूप में शरीर एक मशीन है, लेकिन चेतनागत तौर पर उसमें जो प्राण-तत्त्व है, वह आत्मा ही है। उस आत्म-तत्त्व के बारे में ही कठोपनिषद् में रहस्योद्घाटन हुआ है। नचिकेता ने अगला प्रश्न किया। अब संवाद प्रारंभ हो रहा है मृत्युदेव और नचिकेता के बीच । बातचीत हो रही है, अब वे दोनों वरदान से ऊपर उठ चुके हैं। अब गुरु-शिष्य के बीच संवाद हो रहा है। दोनों एक तरह से मित्र हो गए हैं। दोनों के बीच प्रगाढता बढ़ती जाती है। हर तरह का भेद समाप्त हो गया है। अद्वैत स्थापित हो गया है। गुरु कौन, जो शिष्य को कुछ बना दे। कुम्हार जब घड़ा बनाता है, तो वह कुम्हार नहीं रह जाता। तब वह खुद मिट्टी बन जाया करता है। वह चाक पर रखी मिट्टी में अपने प्राण उंडेल देता है । मिट्टी तब मंगल कलश, दीपक, गुलदस्ता बन जाती है। हम सब मिट्टी 175 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003862
Book TitleMrutyu Se Mulakat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherPustak Mahal
Publication Year2011
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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