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रूप बदलता रहेगा, लेकिन उसका मूल तत्त्व तो वही रहेगा। मूल चेतना सौ-सौ परिवर्तनों के बाद भी अपरिवर्तनशील रहेगी।
एक लड़की है, वह किसी की बेटी है और किसी की बहन है। उसकी शादी हो गई; अब वह किसी की पत्नी है और किसी सास की बहू । उसके संतान हुई, तो वह किसी की माँ बन गई। एक दिन वह सास बन जाती है; फिर उसे दादी बनने का सुख भी मिल जाता है। इतने सारे रूप बदलने के बावजूद वह एक महिला तो रहेगी ही। यह उसका मूल स्वभाव है । नारी तो वह तब भी थी, जब वह किसी की लड़की थी और नारी वह तब भी रहेगी, जब किसी की माँ बन जाएगी। हम पैदा होते हैं, बचपन बीतता है, जवानी आती है, बुढ़ापा आता है, एक दिन मर जाते हैं, मिट्टी बन जाते हैं। मिट्टी, मिट्टी में मिल जाती है। मूल तत्त्व है आत्मा, जो अपरिवर्तनशील रहता है। बाहर के रूप बदलते रहते हैं । मूल सत्ता वही रहती है। उसमें कोई परिवर्तन नहीं होता।
दुनिया में तत्त्व-ज्ञानी कौन है? वह जिसने परिवर्तन के रहस्य को समझ लिया। जो निर्मोही, अनासक्त हो गया, वही इन परिवर्तनों को समझ सकता है। दूसरा वह व्यक्ति भी तत्त्व-ज्ञानी है, जिसने इस रहस्य को समझ लिया कि सब कुछ परिवर्तनशील होने के बावजूद कुछ है जो अपरिवर्तनशील रहता है। जिसने परिवर्तन के मर्म को समझा, उसने तत्त्व-ज्ञान प्राप्ति का आधा रास्ता पार कर लिया। जिसने परिवर्तनशीलता के बीच रहने वाली अपरिवर्तनशीलता को समझ लिया, वह संपूर्ण आत्म-ज्ञानी हो गया। उसने तत्त्व-ज्ञान प्राप्ति के लिए शत-प्रतिशत अंक प्राप्त कर लिये।
किसी वस्त. उसमें रहने वाले तत्त्व, उसमें होने वाले परिवर्तन के मर्म को समझने वाला ही तत्त्व-ज्ञानी होता है। भौतिक परिस्थितियों में मर्म को समझने वाला व्यक्ति तत्त्व-ज्ञानी हो गया, लेकिन इस भौतिक में जो मूल तत्त्व है, उसे समझने वाला आत्म-ज्ञानी कहलाएगा। प्रश्न उठ सकता है कि आत्म-ज्ञान ज़्यादा श्रेष्ठ है या तत्त्व-ज्ञान? आत्म-ज्ञान तो तत्त्व-ज्ञान का ही एक हिस्सा है। प्रत्येक वस्तु में दो हिस्से होते हैं, एक वह जो परिवर्तनशील है और दूसरा वह जो अपरिवर्तनशील है। परिवर्तनशील है हमारा शरीर, अपरिवर्तनशील है हमारी आत्मा। शरीर रूपी वस्तु को इसी आत्मा ने धारण कर रखा है। अलग-अलग पुद्गल-परमाणुओं को जिसने जोड़ रखा है, वह हुई उसकी चेतना, उसकी शक्ति । जैसे आटे का प्रत्येक कण अलग-अलग होता है, लेकिन उसमें पानी डालते ही वह सँध जाता है और सारे कण एक हो जाते हैं। आटे का कण परिवर्तनशील है, लेकिन आटे को बाँधने वाला है पानी।
सबका शरीर परिवर्तनशील है, लेकिन इस शरीर के भीतर जो अपरिवर्तनशील रहता है, वह चेतना, जिसे तत्त्व ज्ञानियों ने आत्मा नाम दिया है, वह आत्मा हमारा जीवन है, मूल तत्त्व है, जिसके रहते हम जीते हैं और जिसके चले जाने से यह शरीर निष्प्राण
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