SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 172
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 16 को कैसे पाएँ तत्व-ज्ञान बात की शुरुआत एक छोटे से प्रसंग से करते हैं। किसी समय एक राजा ने अपने लिए एक खूबसूरत महल का निर्माण करवाया। महल इतना सुन्दर था कि दूर-दराज़ के लोग उसे देखने आते और महल की शिल्प-कला की तारीफ़ किया करते। एक दिन राजा ने एक संत को अपने महल में आमंत्रित किया। राजा ने संत को अपना महल दिखाया। राजा संत को महल का एक-एक हिस्सा दिखाते हुए उसकी तारीफ़ करने लगा, 'मैंने अमुक पत्थर वहाँ से मँगाया है, स्तंभ अमुक स्थान से मँगाए, संगमरमर से बनाए गए हैं। महल की इस छत पर सोने की स्याही से चित्र बनाए गए हैं।' राजा अपने महल की जितनी तारीफ़ कर सकता था, उसने उतनी तारीफ़ की। संत ने सारा राजमहल देख लिया, लेकिन कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की। राजा को आश्चर्य हुआ। उन्होंने संत से पूछा, 'क्या बात है महाराज, आप कुछ बोल नहीं रहे; कहीं कुछ कमी तो नहीं रह गई? आप मुझे बताएँ, मैं उसमें सुधार की कोशिश करूँगा।' संत ने आखिर अपना मौन तोड़ते हुए कहा, 'हे राजन् ! मुझे लग रहा है कि आपने राजमहल बहुत ही सुन्दर, कलात्मक, मज़बूत बनवाया है लेकिन मैं चुप इसलिए रहा कि आपने राजमहल तो चिरस्थायी बना लिया, लेकिन इसमें रहने वाला चिरस्थायी नहीं है।' यह सुनते ही राजा चौंक पड़ा। वह कहने लगा, 'महाराज, यह आप क्या कह रहे हैं ?' संत चुप रहे, तो कुछ ही देर में राजा उनका संकेत समझ गया। राजमहल तो सब चिरस्थायी बनवाना चाहते हैं, लेकिन उसमें रहने वाले स्थायी कहाँ हुआ करते हैं ! प्रकृति का नियम है, सब कुछ परिवर्तनशील है; फिर महलों में रहने वाले हमेशा कैसे रह सकते हैं। एक दिन तो सबको जाना ही पड़ेगा। सत्ता के लिहाज़ से हो सकता है कि हर चीज अपरिवर्तनशील हो, लेकिन यह तो बाहरी रूप हुए। भीतर तो जो कुछ है, वह बदलने वाला है । हर चीज को बदलना ही पड़ता है। धातु के रूप में सोने का उदाहरण लिया जा सकता है। चाहे नैकलेस बनाएँ या हाथों की चूड़ियाँ, सोने का 171 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003862
Book TitleMrutyu Se Mulakat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherPustak Mahal
Publication Year2011
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy