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________________ उन्हें अनेक प्रलोभन दिए और पाया कि यह तो वास्तव में मृत्यु का रहस्य जानने का अभिलाषी है । तब यमराज ने उसे आत्मा का रहस्य बताना शुरू किया। यमराज नचिकेता को बताते हैं, किसी की भी आत्मा उसके अंतर- हृदय में ही समाहित रहती है । यह जो हमारा अंतर - हृदय है, प्रगाढ़ सघन केन्द्र है, इस केन्द्र में ही हमारी आत्मा व्याप्त रहा करती है। ध्यान का पवित्र मार्ग इस ज्योति को, भीतर की ज्योति को उजागर करने के लिए ही है । यह खुद के करीब आने का मार्ग है। ध्यान अर्थात् परमात्म - प्राप्ति का रास्ता । ध्यान के रास्ते पर चलने वाला व्यक्ति अपने करीब हुआ करता है। ध्यान का अर्थ होता है धैर्यपूर्वक अपने-आप को देखना, अपने में स्थिर होकर अपने को देखना । हम आईना देखते हैं, उसमें हमें अपना प्रतिबिम्ब दिखाई देता है । अगर आईना हिलता रहेगा, तो हम उसमें अपने-आप को साफ-साफ नहीं देख पाएँगे । चेहरा आईने में देखना है तो खुद को स्थिर रखना होगा । ठीक उसी तरह हमें अपनी इंद्रियों को शांत करके स्वयं से मुलाकात करनी होगी। T महत्त्व इस बात का नहीं है कि हम बाहर कुछ देख रहे हैं। ध्यान हमें बाहरी तौर पर कुछ भी नहीं दिखाता, ध्यान हमें भीतर उतरकर अपने-आप से मिलाता है । हमारे भीतर जो मौलिक संभावनाएँ हैं, ध्यान हमें उन संभावनाओं से जोड़ता है। ध्यान हमें हमारे अंतर्जगत से मुलाकात करवाता है। संभावनाएँ कितनी हैं, इसी का महत्त्व है। एक सवाल पूछूं। हमारे सामने दो वस्तुएँ हैं - लोहा और चाँदी । इनमें से कौनसी चीज़ ज़्यादा क़ीमती है ? किसी का भी पहला उत्तर यही होगा कि चाँदी ज़्यादा मूल्यवान होती है; लेकिन यह पूरा सच नहीं है। एक गुरु ने मृत्यु - पूर्व अपने सारे शिष्यों को एकत्र कर उनकी परीक्षा ली। वे अपना उत्तराधिकारी चुनना चाह रहे थे। ऐसा होता है, संत बनने के बाद भी बहुत से लोगों में चाह बनी रहती है । बहुत सारे शिष्य हों, तो उनका अधिपति कौन नहीं बनना चाहेगा ? गुरु ने शिष्यों से कहा, मैं किसी एक का चयन अधिपति के लिए करूँ, उससे पहले मैं सबसे एक सवाल पूछना चाहूँगा । जो सही उत्तर देगा, वही मेरा उत्तराधिकारी बनेगा। गुरु ने एक सवाल पूछा, चाँदी ज्यादा मूल्यवान है या लोहा ? अधिकांश का जवाब आया, चाँदी ही ज्यादा मूल्यवान होती है। केवल एक शिष्य चुप रहा। गुरु ने उससे पूछा, वत्स, तुम चुप क्यों हो ? क्या तुम्हें इस प्रश्न का उत्तर नहीं आता ? शिष्य ने कहा गुरुदेव मुझे लगता है, लोहा ज्यादा मूल्यवान हो सकता है। अन्य शिष्य यह उत्तर सुनकर हँस पड़े । 162 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003862
Book TitleMrutyu Se Mulakat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherPustak Mahal
Publication Year2011
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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