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एक बहुत प्यारे संत हुए हैं नान-इन । संत के जीवन की जिस घटना का जिक्र कर रहा हूँ, उस घटना से नान-इन के ज्ञान-प्राप्ति का संबंध जुड़ा हुआ है। संत नान-इन अपने गुरु के साथ मठ में रहा करते थे । एक दिन गुरु ने उनसे कहा वत्स ! मेरे पास तुम्हारी शिक्षा-दीक्षा पूरी हो गई है। अब तुम्हें जाना चाहिए । नान-इन रवाना होने ही वाले थे, रुकने का कोई औचित्य ही नहीं था। नान ने देखा, अंधेरा घिरने लगा था । वे सोच रहे थे कि सुबह चले जाएँगे, उन्होंने गुरुदेव से इतना ही कहा गुरुदेव, अंधेरा होता जा रहा है, अगर ... ! तभी उनके गुरु भीतर से एक जलता दीया लाए और उन्हें कहा, मैं तुम्हें रोशनी थमाता हूँ, तुम निकल पड़ो। अब तो नान को रवाना होना ही था । नान हाथ में दीया संभाले वहाँ से रवाना हो गए। वे कुछ ही कदम चले थे कि उनके गुरु पीछे से आए और उनका जलता हुआ दीया फूँक मारकर बुझा दिया । नान हतप्रभ रह गए, गुरुदेव ! ये आपने क्या किया? इतना घना अंधेरा और आपने दीया बुझा दिया ? यह तो आपकी ही रोशनी थी । गुरु बोले- वत्स ! मैंने यह दीया इसलिए बुझाया है ताकि तुम अपनी रोशनी में आगे बढ़ सको। 1
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आत्म-ज्ञान के पाँच चरण
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कहानी बहुत ही सरल-सा संदेश देती है कि आदमी को अपनी ही रोशनी में आगे बढ़ना पड़ता है। दूसरों की रोशनी से तो अपना अंधेरा भी बेहतर होता है। रात के इस अंधेरे में तुम्हें रवाना करने का अर्थ इतना ही है कि तुम अपनी रोशनी उपलब्ध कर सको। हर किसी इंसान को अपने जीवन में अपनी रोशनी उपलब्ध कर लेनी चाहिए, अपना जीवन ज्योतिर्मय कर लेना चाहिए, ज्योति - पथ का राही बन जाना चाहिए।
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कोई व्यक्ति अपने हाथों में रोशनी थाम कर अंधेरे में चलेगा, तो वह ज्योति - पथ का अनुयायी कहलाएगा। हाथों में रोशनी न हो और इंसान अंधेरे में चलेगा, तो वह राह भटक सकता है, लेकिन अगर व्यक्ति स्वयं ज्योतिर्मय बन
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