SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 154
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ दुनिया में ऐसे ही लोग होते हैं। संत प्रवचन दे रहे हैं। जिनमें जिज्ञासा है, वे तो प्रवचन सुन लेंगे; जिनमें जिज्ञासा न होगी, वे वहाँ बैठकर भी उबासी खाते दिखेंगे। अनेक लोग तो 'ऊँघो' किस्म के होते हैं। प्रवचन में भी ऊँघते रहते हैं, सोते रहते हैं। दूसरी किस्म के लोग 'सूंघो' होते हैं। वे सूंघते रहते हैं कि अगल-बगल में कौन बैठा है, कौन क्या कर रहा है। सही फायदा तो उन्हें होता है जो 'चूँघो' किस्म के होते हैं। ऐसे लोग हंसों की तरह प्रवचन में से मोती बीनते हैं। जो अच्छी चीजें चुनते हैं, वे 'चूँघो' कहलाते हैं। ऐसे लोग आत्मपिपासा से भरे रहते हैं। उनके अध्यात्म भाव, आध्यात्मिक जिज्ञासा अभिनंदन के काबिल होती है। कुल मिलाकर जिज्ञासा पैदा हो जानी चाहिए, प्यास पक जानी चाहिए। बिना प्यास के पानी का भी कोई मोल नहीं होता। प्यासे को पानी चाहिए और आत्म-जिज्ञासु को ज्ञान । आत्म-जिज्ञासु को इधर-उधर के निमित्त अच्छे नहीं लगते। भगवान महावीर ने साढ़े बारह साल की तपस्या में सिर्फ 365 दिन आहार लिया। उनके भीतर एक ही जिज्ञासा, एक ही तमन्ना थी कि मैं कौन हूँ, कहाँ से आया हूँ, कहाँ जाऊँगा - इस तथ्य को जानूँ। अपने आत्म-सत्य से रूबरू होऊँ। इस स्थिति में साधक को खाना-पीना याद नहीं आता। आत्म-जिज्ञासु को प्रलोभन नहीं सुहाते । व्यक्ति उस तरफ आकर्षित नहीं हो पाता। उसके लिए तो आत्म-ज्ञान ही सबसे बड़ा धन होता है। सबके भीतर आत्म-जिज्ञासा पैदा हो जाना चाहिए कि वह कौन है, कहाँ आया है, अंत में कहाँ जाएगा? हम लोग दूसरों के बारे में बहुत-सी जानकारी रखते हैं, लेकिन खुद के लिए समाधान नहीं खोज पाते। इसकी वजह यह है कि अभी तक भीतर वास्तव में प्रश्न पैदा नहीं हुए। कोई पूछे कि आप कौन हैं, तो यही उत्तर मिलेगा, मैं अमुक का पुत्र हूँ। अमुक मेरे पिता हैं। मैं अमुक स्थान का रहने वाला हूँ। लेकिन आत्म-जिज्ञासा उसे ही कहते हैं, जब हम जन्म-मरण के पार के तत्त्व को जानने की उत्कंठा रखें। पहली ज़रूरत है, हम एकांत में बैठें, ध्यान करें। चित्त को शांत करें। अपने आपसे पूछे, मैं कौन हूँ, कहाँ से आया हूँ ? माँ-बाप के अलावा भी मेरा कोई अस्तित्व है या मेरा कोई स्रोत है? खुद को जानने की जिज्ञासा रखने वाला पहले यह जानेगा कि वह क्या नहीं है। यानी शुरुआत हो गई, मैं शरीर नहीं हूँ क्योंकि शरीर तो एक दिन मिट जाने वाला है। क्या मैं मिटने वाला तत्त्व हूँ? तो फिर ये ताम-झाम क्यों? आत्म-जिज्ञास गहन चिंतन करता है कि मैं शरीर नहीं हूँ, फिर भी मैं नहीं मिलूंगा। चिता पर कौन जलता है? हमारा शरीर । बूढ़ा कौन होता है ? हमारा शरीर । जब हम शरीर हैं ही नहीं, तो इससे मोह कैसा? तब धैर्यपूर्वक हमें सवाल पूछना होगा, मैं कौन हूँ? मैं मन नहीं हूँ, मन तो 153 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003862
Book TitleMrutyu Se Mulakat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherPustak Mahal
Publication Year2011
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy