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________________ पर नहीं चल सकेगा। योगीराज सहजानन्द महाराज के बारे में कहा जाता है कि उन्होंने वाहन का उपयोग किया। संपूर्ण जैन परंपरा में संतों के लिए वाहन का उपयोग वर्जित रहा है। लेकिन योगीराज सहजानन्द ने देखा कि उन्हें एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाने में छह-छह माह लग जाते हैं और यूँ समय पैदल चलने में ही व्यर्थ बीत जाता है। तब उन्होंने किसी की परवाह न करते हुए वाहन का सहारा लिया। उन्हें संघ से निष्कासित कर दिया गया, तो भी वे विचलित नहीं हुए। किसी भी गच्छ या समुदाय का सौभाग्य होता है कि उसे योगीराज सहजानन्द जैसे अच्छे संत मिलते हैं। यूँ किसी आध्यात्मिक संत को निष्कासित करते रहे, तो गच्छ या समुदाय का भट्ठा ही बैठ जाएगा। यह धर्म-संघ का अनुशासन नहीं, राजतंत्र कहलाएगा। संत को किसी दायरे में बाँधना ही गलत है। संत वह है जो सब चीज़ों से स्वतंत्र हो गया। कोई भी व्यक्ति अपने कल्याण के लिए संत बनता है। संत को समाज के बीच नहीं आना चाहिए। लोग नियमों के वशीभूत होकर उन्हें अनुशासन में बाँधना चाहते हैं। उन पर इतने अंकुश लगा देते हैं कि कल्याण का मार्ग तो कहीं पीछे छूट जाता है। कोई भी संत गच्छ-परम्परा के लिए संत नहीं बना करता। वह तो अपने, स्व के कल्याण के लिए संत बनता है। संत को समाज में आना भी नहीं चाहिए, अन्यथा समाज के लोग उनके लिए बंधन की बेड़ी बन जाया करते हैं। कुछ मर्यादाएँ गरिमापूर्ण हुआ करती हैं, लेकिन इन मर्यादाओं के चक्कर में संतों पर इतने अंकुश का बोझ डाल दिया जाता है कि योगीराज सहजानन्द जैसे संत तो यहाँ से निकल जाते हैं, लेकिन ज्यादातर संत तो इन्हीं नियमों, मर्यादाओं में ही फँस कर रह जाते हैं। योगीराज सहजानन्द जी निर्भय और साहसी संत थे। उनकी गुफा में शेर भी आया करते थे। मैं स्वयं उस गुफा में रहा, साधना की। बड़ा तपोमय स्थान है। आत्म-ज्ञान का मार्ग बहुत कठिन है। यहाँ दाता भी कठिनता से मिलता है, तो पाने वाले भी मुश्किल से ढूँढ़ पाते हैं। लघुराज स्वामी ने 108 बार प्रणाम किया, तब कहीं जाकर उन्हें श्रीमद् राजचन्द्र से गुरु मंत्र मिला। उनके सामने दो ही विकल्प थे कि या तो वे अपने वेश और परंपरा को बरकरार रखें या फिर गुरु ने जो कह दिया उसी राह पर चल पड़ें। वे तो राजचन्द्र के शिष्य बन गए। यही आत्म-ज्ञानियों का पथ है। यह पथ हमारे लिए तभी लाभकारी हो सकता है, जब हम किसी भी तरह की कुर्बानी देने को तैयार हो जाएँ। ऊपर उठना ज़रूरी है – संसार से, मत से, मज़हब से। सारी सरपच्चियों से ऊपर उठना ज़रूरी है। ऐसे में दुर्लभ आत्म-ज्ञान का रहस्य, मृत्यु का रहस्य पाना आसान हो जाया करता है। यमराज भी नचिकेता जैसे शिष्य को पाकर धन्य हो जाते हैं । गुरु से तो सतपात्र की ही झोली भर सकती है। यमराज जैसे गुरु भी तब नचिकेता जैसे शिष्य के 147 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003862
Book TitleMrutyu Se Mulakat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherPustak Mahal
Publication Year2011
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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