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बनवाने के लिए अपने कोष से पैसे जारी करता है। चोर को भगवान तब याद आते हैं, जब वह चोरी करते पकड़ा जाता है। गरीब को गरीबी में भगवान याद आते हैं।
नचिकेता जैसे लोग धन्यभागी होते हैं जिन्हें सौ-सौ प्रलोभन भी मिल जाएँ, तब भी वे आत्म-भाव में रहते हैं। प्रलोभन को पीठ दिखाने वाला ही असली संत होता है। कोरे एकादशी का व्रत करने से कोई ज़्यादा परिणाम आने वाला नहीं है। सब कुछ है, तब भी भीतर उपवास के भाव उठे, तो समझ लेना असली साधना की शुरुआत हो रही है। मजबूरी में तो आदमी कुछ भी कर लेगा। खाना नहीं मिला, तो इसे उपवास तो नहीं कहेंगे। साधना के भाव से आए हो, तो उठते-बैठते भी साधना हो जाएगी। इसलिए यमराज ने कहा – 'आत्म-ज्ञानी और आत्मा का उपदेश देने वाला, दोनों ही दुर्लभ हैं।'
एक संत हुए हैं श्रीमद् राजचन्द्र । वे ईडर के रहने वाले थे। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने भी उनके साहित्य में रुचि ली और उन्हें अपने गुरु की तरह माना। मैं भी उन्हें गुरु का सम्मान देता हूँ। वे गहरे आत्म-साधक हुए। हम्पी की कंदराओं में साधना करते हुए मैंने उनके साक्षात् दर्शन किए हैं। एक दफ़ा जब मैं अपने सूक्ष्म शरीर के द्वारा ब्रह्मांड की यात्रा के लिए निकला, तो मुझे पहुँचाने जो महापुरुष एक प्रकाश-पुंज के रूप में मेरे साथ आए, वह श्रीमद् राजचन्द्र ही थे। उनके जीवन से जुड़ी कई कहानियाँ कही जाती हैं। उनकी सादगी ऐसी थी कि इससे प्रभावित होकर जैन परंपरा के स्थानकवासी संत उनके पास पहुँचे। राजचन्द्र आत्म-संत बन गए थे। केवल कपड़े पहनने से या न पहनने से कोई संत नहीं बन जाता। मन बदल जाना चाहिए, भीतर का रूपांतरण हो जाना चाहिए। मन चंगा तो कठौती में गंगा।
श्रीमद् राजचन्द्र के पास एक संत लघुराज स्वामी पहुंचे। उन्होंने प्रणाम किया, तो राजचन्द्र ने कोई जवाब नहीं दिया। लघुराज वहीं बैठ गए। पूरी रात बीत गई। संत राजचन्द्र को निहारते रहे। सुबह राजचन्द्र ने आँख खोली तो संत ने कहा, गुरुदेव मुझे गुरु-मंत्र दीजिए। लघुराज स्वामी ने 108 बार पंचांग नमस्कार कर निवेदन किया, तब श्रीमद् राजचन्द्र ने जो कहा, वह समझने योग्य है। उन्होंने लघुराज स्वामी से कहा - सहजात्म स्वरूप परमगुरु। तुम्हारा सहज स्वरूप ही तुम्हारा दिव्य गुरु है। सहजात्म स्वरूप परमगुरु - एक दिव्य मंत्र बन गया। लघुराज स्वामी तो इसे ही जपते रहे। यही उनके लिए गुरु-मंत्र बन गया। इस मंत्र की धुन लगाते-लगाते, इस मंत्र का श्वोश्वास में सुमिरन करते, इसके स्वरूप का ध्यान करते हुए लघुराज स्वामी ने आत्म-बोध और आत्म-प्रकाश को उपलब्ध किया।
लघुराज स्वामी ने सीखा कि साधक के लिए साहसी होना ज़रूरी है। साहस, निर्भयता के गुण वाला ही आगे बढ़ सकता है। नकारात्मक विचार वाला साधना के पथ
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