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उंडेलने लगते हैं । कप भर जाता है, चाय प्लेट में गिरने लगती है। यह देख प्रोफेसर बोल उठता है, 'गुरुदेव, यह क्या कर रहे हैं, चाय बाहर गिर रही है।' गुरु कहते हैं, 'मैं तुम्हें यही समझाना चाहता हूँ। पहले से भरे हुए पात्र में कुछ भी डालोगे, तो वह बाहर ही गिरेगा। तुम भी पहले से भरे हुए हो। जाओ, पहले अपने पात्र को खाली करके आओ। रीते पात्र में ही कुछ भर सकता है। भीतर का अहम् छोड़ कर आओ। यह भाव कि मैं जानता हूँ, उसे छोड़कर आओ, तब तुम्हें मैं कुछ दे पाऊँगा।'
सच तो यह है कि 'मैं' और 'मेरा' का भेद मिटे, तब सब-कुछ 'हमारा' हो जाएगा। सब एक-दूसरे के सहयोगी हैं, यह बात समझ में आ जाए, तो व्यक्ति आत्म-ज्ञान के पथ का राही बन जाता है। भरे हुए कप में कुछ भी डालने से लाभ नहीं होगा। गुरु के पास जाओ, तो पहले अपने आप को खाली कर लो। तर्क-वितर्क के आधार पर आत्म-ज्ञान का रहस्य प्राप्त नहीं किया जा सकता। इसके लिए समर्पण चाहिए। गुरु के साथ एकात्म भाव होने का संकल्प चाहिए कि अब 'मैं' मैं नहीं रहा, 'वो' हो गया हूँ। गुरु जो कह दे, वही सच। किसी को गुरु मानने का अर्थ है, अब 'मैं' मिट गया। तेरा तुझको अर्पण, क्या लागे अब मेरा।
केवल किताबों के ज्ञान से बात नहीं बनेगी। स्वयं के भीतर मुमुक्षा चाहिए, ताकि उस मुमुक्षा के बल पर हम अविद्या के दलदल से बाहर निकल सकें। यह तो रोशनी का पथ है। बाहर निकलने का पथ । जागने का पथ। आस्पेसंकी ने एक पुस्तक लिखी है। यह पुस्तक उसने अपने गुरु को समर्पित की है, जिसने उसे सोते हुए से जगाया। वही तो गुरु है जो सोते को जगा दे, अंधकार में भटकते को राह दिखा दे। ___नरेन्द्र के मन में अभिलाषा जगी कि वह जाने, आत्मा क्या है ? उसने हिमालय की यात्रा की। अनेक ऋषि-मुनियों के संपर्क में आया। हरेक ने उसे यही कहा, शास्त्रों को पढ़ो, उनमें लिखा है कि आत्मा क्या है ? नरेन्द्र ने सब से यही कहा, आत्मा के बारे में आपका खुद का अनुभव क्या है, यह बताइए। पर कोई उसकी जिज्ञासा को शांत न सका। आखिर वह रामकृष्ण परमहंस के पास पहुँचा । नरेन्द्र ने पूछा, 'आत्मा है, ब्रह्म है, ईश्वर है, इस बारे में बताइए।' परमहंस पहले तो मुस्कुराए, फिर कहने लगे, 'तुम मेरी परीक्षा लेने आए हो या शिष्य बनने? पहले तुम बताओ कि वास्तव में तुम्हे जानना क्या हैं? जो भी तुम जानना चाहते हो, उसके लिए पूरी तरह तैयार हो या नहीं?' परमहंस ने उसे एकाएक धक्का दिया। नरेन्द्र बेहोश हो गया। तीन दिन बाद उसे होश आया, तो वह ज्ञान के प्रकाश से भरा था। परमहंस ने उससे पूछा, 'अब भी कुछ जानना शेष है ?' नरेन्द्र उनके चरणों में गिर पड़ा, कहने लगा, 'आज के बाद यह जीवन आपको समर्पित है गुरुदेव । नरेन्द्र नामक वह युवक विवेकानन्द के नाम से जाना गया।'
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