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________________ इंसान की हर क्रिया राग का ही परिणाम हुआ करती है। काम को जीवन की किसी भी गतिविधि से जोड़ दो, तो राग ही निकलकर आएगा। पर जब कार्य के परिणाम के बारे में चिंतन-मनन करते हैं, तो अपने आप बोध होने लगता है; फिर चाहे वह कुछ भी क्यों न हो। आपने भोजन किया, स्वादिष्ट लगा। परिणाम से ही भोजन का अर्थ मालूम हुआ। परिणाम से ही राग-वैराग का फैसला हो जाएगा। चिंतन-मनन करें। मनन करने वाला कौन, मैं खुद। मैं एक मनुष्य हूँ, इसलिए इंसानियत मेरा पहला धर्म है। यह सोचते ही हम पशुता से ऊपर उठने लगेंगे। बाप को क्रोध आया। उसने पुत्र की पिटाई कर दी। वह भी इसान ही तो है। आपके पास कई कर्मचारी हैं। किसी को आप ज़्यादा, तो किसी को कम वेतन दे रहे हैं। उनका काम ही ऐसा है तब तो ठीक है, अन्यथा किसी का हक मार कर उसे कम वेतन दिया जा रहा है, तो यह ठीक नहीं है। उसके बारे में विचार करने लगेंगे, तो दया-भाव जागेगा और आप उसकी माली हालत को सुधारने के लिए कुछ और रकम देने की सोचेंगे। सकारात्मक व्यवहार करने को तत्पर हो जाएंगे। ____ मैं एक साधक हूँ - यह सोचा तो कोई भी गलत काम करते हाथ काँपेंगे और हमारा विवेक हमें सही राह पर ले आएगा कि ऐसा न करो, यह गलत है। तब हम सचेत होते चले जाएँगे। गलत मार्ग से हट जाएँगे। वैराग्य आएगा चिंतन और मनन से। ख़ास तौर से परिणाम पर चिंतन करने से। किसी के पास सौ साड़ी हैं, जरा विचार करेंगे, तो नई साड़ी खरीदने के मोह से बचेंगी। खरीद भी लेंगी, तो मन में आएगा कि कम पहनी जाने वाली दो-तीन साड़ियाँ किसी ज़रूरतमंद को दे दें। चिंतन-मनन परिणाम पैदा करता है। इससे मार्ग मिलता है। श्रीमद् राजचन्द्र का एक पद है - कर विचार तो पाम। प्रेम के मार्ग का चिंतन करते रहेंगे, तो राग का जन्म होगा और श्रेय के मार्ग का चिंतनमनन करते रहेंगे, तो वह चिंतन-मनन हमें वैराग की तरफ ले जाएगा। पुरानी किताबों में एक कहानी आती है। एक किशोर जम्बू भगवान महावीर और सुधर्म स्वामी के संपर्क में आता है। उनके उपदेश सुनकर उसके मन में वैराग भाव जागते हैं। वह अपने माता-पिता से कहता है, मैं संन्यास लूँगा। माँ-बाप समझाते हैं, लेकिन वह नहीं मानता। माँ-बाप उसे कहते हैं, बेटा, तुम हमारे इकलौते पुत्र हो।हमारे बुढ़ापे का सहारा बनोगे। तुम हमारे धन के मालिक हो। अभी तो तुम्हें विवाह करना है, हमारा वंश बढ़ाना है। यह क्या संन्यास लेने की बात करते हो? जम्बू नहीं मानता। वह माता-पिता को समझाने लगता है कि यह धन एक दिन आप छोड़कर चले जाएँगे। मैं भी इसे एक दिन छोड़कर चला जाऊँगा। इसलिए मेरे लिए यह धन व्यर्थ है। आप व्यर्थ का मोह कर रहे हैं। मुझे धन की चाह नहीं है। मैं तो उस मार्ग पर कदम बढ़ाना चाहता 135 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003862
Book TitleMrutyu Se Mulakat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherPustak Mahal
Publication Year2011
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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