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________________ आखिर सोचना ही पड़ेगा कि उस पर क्रोध करे या न करे। प्रकृति ने क्रोध का निर्माण किया है, तो कहीं तो इसकी ज़रूरत होगी ही। क्रोध एक शस्त्र है। इसका उपयोग करना चाहिए, लेकिन कहाँ और कब ? इस पर विचार करने के लिए विवेक का सहारा लेना पड़ेगा। बिना विचारे क्रोध किया, तो हो सकता है उसका नुकसान उठाना पड़ जाए। बिना विचारे जो करे, सो पाछे पछताय । जो बिना विचार के, बिना विवेक के अपना कार्य करता है, उसे बाद में पछताना पड़ता है । सामान्य-सी बात पर क्रोध कर लिया और गाली ठोक दी। यह तो मामूली बीमारी के लिए दवा का ज्यादा डोज हो गया। विवेक यही कहता है कि किसी ने पहली ग़लती की है, तो उसे माफ़ किया जाए। दूसरी बार माफ़ किया जाए, उसे समझाया जाए। फिर भी गलती करे, तो उचित कदम उठाएँ । याद रखें, विवेक से किया गया क्रोध भी मुक्ति की राह पर ले जाएगा, श्रेय की तरफ ले जाएगा, कल्याण की ओर ले जाएगा । जब कृष्ण शिशुपाल की 99 ग़लतियों को माफ़ कर सकते हैं, तो क्या हम किसी की 9 ग़लतियों को माफ़ नहीं कर सकते। जब हम मंगलवार को हनुमानजी का शुक्रवार को संतोषी माता का और रविवार को सूर्य देव का व्रत कर सकते हैं, तो क्या हम इसी तरह क्रोध का व्रत नहीं कर सकते ? क्या हम ऐसा कोई संकल्प अपने भीतर नहीं ले सकते कि आज रविवार है । आज हम गुस्सा नहीं करेंगे। आज हमारे गुस्सा न करने का व्रत है। एक व्रत में व्यक्ति भोजन का त्याग करता है । मैं जिस व्रत की बात कर रहा हूँ, उसमें मन के विकारों को त्याग करने की बात है । आप अपने विवेक से ख़ुद सोचिए कि सच्चा व्रत कौन-सा है ? 1 कोई भी चीज़ बुरी नहीं है । भोग, क्रोध, ये सब प्रकृति के प्राकृतिक धर्म हैं; लेकिन इनका उपयोग विवेकपूर्ण तरीके से होना चाहिए। अविवेकपूर्ण तरीके से किया गया कोई भी कार्य विपरीत परिणाम ही लाएगा। इसलिए हमारे जीवन में जिस तत्त्व की सबसे ज़्यादा ज़रूरत है, उसका नाम है - विवेक । आप और हम सभी साधना - पथ के, संबोधि- - साधना के पथिक हैं । संबोधिसाधना बताती है कि हम विवेकपूर्वक जीएँ, विवेकपूर्वक खाएँ, विवेकपूर्वक सोएँ । प्रश्न है - विवेक का जन्म कहाँ से होगा ? बोध और होशपूर्वक जीने से । बोध यानी प्रज्ञा, सावधानी। कोई भी काम आँख मूँदकर मत करो। जाग्रत होकर, सचेतनापूर्वक, बोधपूर्वक काम करने का नाम ही है विवेक। हर पल बोध रखें। सड़क पर चल रहे हैं, हो बोध रखें कि कोई चींटी पाँव के नीचे न आ जाए। हमें ठोकर न लग जाए। खाना खाएँ, तो सावधानी बरतें ताकि जीभ दाँतों के बीच न आ जाए। बोधपूर्वक खाएँ । विवेक हमें समझाता है कि क्या खाना है और क्या छोड़ना । कहाँ जाना है और कहाँ रुकना ? Jain Education International 131 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003862
Book TitleMrutyu Se Mulakat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherPustak Mahal
Publication Year2011
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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