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________________ ये बाहरी प्रकाश तो उदय-अस्त होते रहते हैं। व्यक्ति के सामने एक ही प्रकाश सच्चा प्रकाश है और वह है - विवेक का प्रकाश। यह कोई ज़रूरी नहीं है कि हर व्यक्ति पढ़ा-लिखा हो, पर एक अनपढ़ व्यक्ति में भी विवेक की रोशनी तो हो सकती है। पढ़े-लिखे और अनपढ़ के विवेक में स्तर का फ़र्क हो सकता है, लेकिन विवेक की रोशनी तो रहेगी। ठीक है, अनपढ़ का विवेक दीपक की रोशनी जैसा होगा और एक पढ़े-लिखे व्यक्ति का विवेक सूर्य की रोशनी की तरह दूरगामी और प्रभावी होगा। कोई अगर मुझसे पूछे कि आप किसके अनुयायी हैं ? तो मेरा सीधा सरल जवाब होगा - मैं विवेक का अनुयायी हूँ। मैं जीवन में वही करना पसंद करता हूँ जिसकी प्रेरणा मुझे मेरे विवेक से मिला करती है। सचाई यह है कि विवेक ही धर्म है, विवेक ही व्रत है, विवेक ही चरित्र है, विवेक ही शील और संयम है। आपके पास विवेक है तो तीनों लोकों की संपदा आपके पास है। एक विवेक के अभाव में व्यक्ति विपन्न, दरिद्र और दुःखी है। विवेकशील व्यक्ति जो कुछ करता है, उसके द्वारा कर्मों की निर्जरा ही होती है। विवेकहीन व्यक्ति अच्छे कर्म करता हुआ भी पाप की छाया को अपने साथ लिये चलता है। विवेक बताता है कि इंसान को वही कार्य करना चाहिए जो ख़ुद के लिए तो हितकारी हो ही, दूसरों के लिए भी हानि का कारण न बने। जीओ और जीने दो का सिद्धांत इसी विवेक का परिणाम है। ऐसा कार्य मत करो, जिससे तुम्हारा या किसी का भी अहित हो। ऐसा कुछ मत करो कि दूसरों का अमंगल हो जाए। दूसरों को ऐसी सलाह भी मत दो कि जिससे दूसरों का तो भला हो जाए, लेकिन तुम्हारा ख़ुद का अमंगल हो जाए। विवेक हमारे जीवन का शिक्षक है । विवेक की शिक्षाओं को कभी भी नज़रअंदाज मत करो, क्योंकि विवेक की बातें अंतरात्मा की बातें होती हैं । विवेक यानी भीतर के देवदूत से मिला सही, समुचित रास्ता। __यमराज प्रेय और श्रेय की चर्चा कर रहे हैं। एक पाप पथ है, दो दूसरा पुण्य पथ। हमें किस मार्ग पर जाना चाहिए और किस पर नहीं, कितने प्रतिशत प्रेय मार्ग पर और कितने प्रतिशत श्रेय मार्ग पर। आखिर हम अपने शारीरिक बल, मनोबल, मनोदशा, विवशता को समझकर ही तो तय कर पाएंगे कि कहाँ जाएँ? प्रेय और श्रेय दोनों मार्ग पर जाएँ, लेकिन यह तय करना होगा कि किस मार्ग पर कितने क़दम बढ़ाएँ? इसके लिए ही विवेक की ज़रूरत होती है। विवेक को अपना गुरु समझो। जिस समय इंसान की जैसी स्थिति होती है, उसका विवेक वैसा ही कार्य करता है। सबका आत्म-ज्ञान अलग-अलग होता है और सबकी समझ अलग-अलग। हर एक का ज्ञान का स्तर अलग-अलग होता है। एक पुत्र एक ही तरह की गलती दोहरा रहा है तो पिता को 130 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003862
Book TitleMrutyu Se Mulakat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherPustak Mahal
Publication Year2011
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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