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________________ जीवन का दूसरा मार्ग है अपरिग्रह का। विश्वजित यज्ञ करने का अर्थ यही है कि सब-कुछ दान में देना है। राजा रघु ने भी विश्वजित यज्ञ किया। उन्होंने यज्ञ के बाद अपना सब-कुछ दान में दे दिया। फ़क़ीर हो गए। तभी कौत्स नाम का एक ब्राह्मण उनके पास पहुँचा और कहने लगा, 'महाराज, मेरी शिक्षा पूरी हो गई है। अब मैं अपने गुरु को दक्षिणा देना चाहता हूँ। गुरु ने चौदह करोड़ सोनैया मांगे हैं।' ब्रह्मण ने कहा - 'मैंने आपकी यशोगाथा सुनी है। पता चला है कि आपने विश्वजित यज्ञ किया है और दान कर रहे हैं, सो मैं आपके पास इसी आस में आया हूँ कि आप मुझे मेरी इच्छित वस्तु दान में देंगे।' राजा कुछ विचार में पड़ गए। कौत्स के वहाँ पहुँचने तक वे अपना सब-कुछ दान कर चुके थे। अब उनके पास कुछ न बचा था। उन्होंने कुछ निर्णय किया और कौत्स से कहा, 'तुम दो दिन मेरी यज्ञ शाला में ठहरो, मैं तुम्हारे लिए चौदह करोड़ सोनैयों का प्रबंध करता हूँ।' कौत्स रुक जाता है। राजा रघु कुबेर पर आक्रमण कर धन प्राप्ति का विचार करते हैं। कुबेर को इसका पता चलता है। वह सोचता है कि विश्वजित यज्ञ करने वाले को कोई हरा नहीं सकता। ऐसे में कुबेर स्वयं वहाँ पहुँचकर सोनैयों की बारिश कर देता है । रघु कहते हैं, कुबरे मुझे सिर्फ चौदह करोड़ सोनैयों की आवश्यकता है। शेष ज़रूरतमंदों को बाँट दो। कौत्स धन लेकर राजा को आशीर्वाद देता हुआ प्रस्थान करता है। असल में ये कौत्स और राजा रघु, दोनों की परीक्षा थी। रघु के कुल में ही बाद में भगवान राम ने अवतार लिया। सो रघु के अपरिग्रह ने उन्हें अमर कर दिया। यह होता है अपरिग्रह का प्रभाव। जिसके भीतर अपरिग्रह की चेतना जगती है, वही मुक्त हस्त से दान दिया करता है। नचिकेता यमराज की ओर से दिए गए प्रलोभन से वशीभूत हो जाते, तो उनकी गाथा इस तरह नहीं लिखी जाती और संसार को कठोपनिषद् जैसा शास्त्र नहीं मिलता। यमराज ने नचिकेता से कहा, 'तुम तो पक्के निकले। तेरे जैसा शिष्य पाकर मैं धन्य हो गया। अब मैं तुझे आत्म-ज्ञान का रहस्य, मृत्यु का रहस्य बताने वाला हूँ क्योंकि तुम प्रेय नहीं, श्रेय मार्ग के पथिक हो।' जैन आगमों में एक शास्त्र आता है, उत्तराध्ययन सूत्र । उसमें राजा श्रेणिक की कथा है। राजा श्रेणिक एक बार वन-विहार के लिए जा रहे थे। अचानक उन्होंने अशोक के एक वृक्ष के नीचे एक युवक को तपस्या करते देखा। गौर वर्ण, बलिष्ठ शरीर का मालिक वह युवक सुदर्शन व्यक्तित्व वाला था। राजा ने उससे कहा, 'युवक ! तुम्हारी यह उम्र जंगल में तप करने की नहीं है। अभी साधना का समय नहीं आया। मेरे कोई संतान नहीं है। तुम मेरे महलों में चलो, वहाँ जीवन का आनन्द लो। बुढ़ापा आए, तब संन्यास ले लेना।' युवक मुस्कुरा कर कहने लगा, 127 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003862
Book TitleMrutyu Se Mulakat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherPustak Mahal
Publication Year2011
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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