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________________ सांध्य वेला की तरफ। पर मुँह से लार टपकना बंद न हुआ। आँखें चुंधिया गईं, फिर भी आँखों में निर्मलता न आईं। दाँत गिर गए फिर भी खाने की लालसा न मिटी। कमर झुक गई, फिर भी भोग की पुरानी आदतें नहीं छूटीं। यह बात किसी व्यक्ति विशेष के लिए नहीं है। सभी इस मायाजाल के शिकार हैं। जीवन के प्रति गंभीर बनो, होश और बोधपूर्वक जीओ तो संभावना है कि हम लोग मुक्त हो जाएँ। बाकी तो अमृत के कुंड में गिर कर भी कीचड़ ही चाटते हैं। कहते हैं - एक आदमी सुकरात के पास गया। वह कहने लगा, ‘महाराज स्त्री के बारे में आपका क्या नज़रिया है ? मैं जानना चाहता हूँ कि व्यक्ति को जीवन में कितनी बार भोग करना चाहिए?' सुकरात उस व्यक्ति की मनोदशा समझ गए। वह गहरी मूर्छा में था। सुकरात ने उसे जवाब दिया कि जीवन में एक बार भोग पर्याप्त है। उस व्यक्ति ने दुबारा पूछा, 'एक बार से मन न भरे तो?' सुकरात ने कहा, 'जीवन में दो बार।' व्यक्ति ने फिर सवाल किया, 'इससे भी मन न भरे तो?' सुकरात ने कहा, 'वर्ष में एक बार किया गया भोग पर्याप्त है।' उस आदमी को इससे भी संतुष्टि न मिली। उसने फिर प्रश्न पूछा, तो सुकरात ने कहा, 'भाई एक महीने में एक बार ठीक है।' लेकिन वह आदमी तो जैसे सुकरात की परीक्षा लेने पर ही उतारू था। उसने फिर पूछा, इससे भी मन न भरे तो क्या करे? इस बार सुकरात का जवाब था, 'सुनो महाशय, मेरी बातें मनुष्यों के लिए हैं, भेड़ियों के लिए नहीं। एक माह में एक बार से भी मन न भरे, तो फिर तो ऐसा व्यक्ति सिर पर कफ़न बाँध ले और फिर जो चाहे, सो करे।' ऐसा नहीं कि दांपत्य-जीवन न जीया जाए। बस, प्रेय और श्रेय के बीच संतुलन बिठा लेना चाहिए। कहीं ऐसा न हो कि शादी कर ली, तो पत्नी के साथ व्यभिचार करने लगो। हर तरह की चीज़ का आनन्द लो, लेकिन उसकी एक सीमा रखो। बोलने, खाने, भोगने - सब की सीमा तय कर लो। इससे संसार भी सध जाएगा और संन्यास भी। बोलना अच्छी बात है, लेकिन कुछ समय मौन रहकर भी देखें। शरीर के संचालन के लिए भोजन करें, लेकिन यूँ नहीं कि हर समय कुछ-न-कुछ खाते ही रहें। सप्ताह में एक दिन व्रत-उपवास भी रखें। इससे शरीर की शुद्धि भी हो जाएगी। केवल प्रिय लगता है, इसलिए खाते न चले जाओ। नेत्रों का संयम भी रखो। किसी का कोई अंग देखकर मन मचलता है तो अपना नेत्र-संयम रखो, मन अपने आप शांत हो जाएगा। ताक-झाँक न करें ताकि मन किसी अंग को देखकर उद्वेलित न हो। भगवान बुद्ध ने एक ध्यान-पद्धति दी थी - विपश्यना चंक्रमण। यानी जब सारी दुनिया सोए, तो तुम जाग जाओ। पूनम की रात में छत या सड़क पर टहलने लगो। इधर-उधर देखने की बजाय अपने उठते-गिरते पाँवों पर ध्यान दो। इसे कहा गया - 123 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003862
Book TitleMrutyu Se Mulakat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherPustak Mahal
Publication Year2011
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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